इलाहाबाद : बेसिक शिक्षा परिषद के प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षामित्र से सहायक अध्यापक पद पर समायोजन का विवाद काफी लंबा है। इलाहाबाद हाईकोर्ट समायोजन की प्रक्रिया को कटघरे में खड़ा कर चुका है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दिलीप गुप्ता और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ ने शिवम राजन व कई अन्य की याचिकाओं को स्वीकार करते हुए अपना फैसला दिया था। कोर्ट ने कहा था कि अनिवार्य शिक्षा कानून 2009 के उपबंधों के विपरीत राज्य सरकार ने बिना विधिक प्राधिकार के मनमाने तौर पर नियमों में संशोधन किए, यहां तक कि अध्यापक की परिभाषा ही बदल डाली।
शिक्षामित्र अध्यापक नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता नहीं रखते हैं। उनकी नियुक्ति व समायोजन में आरक्षण नियमों का पालन भी नहीं किया गया, केंद्र सरकार व एनसीटीई द्वारा निर्धारित मानकों के विपरीत राज्य सरकार ने सहायक अध्यापकों की नियुक्ति के अतिरिक्त स्रोत बनाए जिसका उसे वैधानिक अधिकार नहीं था। 1समायोजन पर फैसला देते समय हाईकोर्ट ने कहा कि उप्र बेसिक शिक्षा (अध्यापक सेवा) नियमावली 1981 में राज्य सरकार ने अनिवार्य शिक्षा कानून 2009 के उपबंधों के विपरीत संशोधन किए तथा अध्यापक नियुक्ति के नए मानक तय किए, जो असांविधानिक है। 1981 की सेवा नियमावली जूनियर बेसिक व सीनियर बेसिक स्कूलों के लिए मानक निर्धारित करती है। केंद्र सरकार ने संसद से कानून पारित कर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को पढ़ना अनिवार्य किया है और अध्यापक नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता व मानक तय किए हैं, ताकि शिक्षा में एकरूपता लाई जा सके। एनसीटीई ने अधिसूचना जारी कर कार्यरत ऐसे अध्यापकों को प्रशिक्षण प्राप्त करने या न्यूनतम योग्यता अर्जित करने के लिए पांच वर्ष की अवधि की छूट दी थी, लेकिन यह छूट एक बार के लिए ही दी गई थी। कोर्ट ने कहा था कि शिक्षा मित्रों की नियुक्ति मनमाने तौर पर बिना आरक्षण कानून का पालन किए की गई है, ऐसे में इनका समायोजन अनुच्छेद 14 व 16 के विपरीत है। साथ ही ये न्यूनतम योग्यता भी नहीं रखते हैं। इसी आदेश के खिलाफ शीर्ष कोर्ट में अपील की गई थी।
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इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति दिलीप गुप्ता और न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की तीन सदस्यीय पूर्ण पीठ ने शिवम राजन व कई अन्य की याचिकाओं को स्वीकार करते हुए अपना फैसला दिया था। कोर्ट ने कहा था कि अनिवार्य शिक्षा कानून 2009 के उपबंधों के विपरीत राज्य सरकार ने बिना विधिक प्राधिकार के मनमाने तौर पर नियमों में संशोधन किए, यहां तक कि अध्यापक की परिभाषा ही बदल डाली।
शिक्षामित्र अध्यापक नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता नहीं रखते हैं। उनकी नियुक्ति व समायोजन में आरक्षण नियमों का पालन भी नहीं किया गया, केंद्र सरकार व एनसीटीई द्वारा निर्धारित मानकों के विपरीत राज्य सरकार ने सहायक अध्यापकों की नियुक्ति के अतिरिक्त स्रोत बनाए जिसका उसे वैधानिक अधिकार नहीं था। 1समायोजन पर फैसला देते समय हाईकोर्ट ने कहा कि उप्र बेसिक शिक्षा (अध्यापक सेवा) नियमावली 1981 में राज्य सरकार ने अनिवार्य शिक्षा कानून 2009 के उपबंधों के विपरीत संशोधन किए तथा अध्यापक नियुक्ति के नए मानक तय किए, जो असांविधानिक है। 1981 की सेवा नियमावली जूनियर बेसिक व सीनियर बेसिक स्कूलों के लिए मानक निर्धारित करती है। केंद्र सरकार ने संसद से कानून पारित कर 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को पढ़ना अनिवार्य किया है और अध्यापक नियुक्ति की न्यूनतम योग्यता व मानक तय किए हैं, ताकि शिक्षा में एकरूपता लाई जा सके। एनसीटीई ने अधिसूचना जारी कर कार्यरत ऐसे अध्यापकों को प्रशिक्षण प्राप्त करने या न्यूनतम योग्यता अर्जित करने के लिए पांच वर्ष की अवधि की छूट दी थी, लेकिन यह छूट एक बार के लिए ही दी गई थी। कोर्ट ने कहा था कि शिक्षा मित्रों की नियुक्ति मनमाने तौर पर बिना आरक्षण कानून का पालन किए की गई है, ऐसे में इनका समायोजन अनुच्छेद 14 व 16 के विपरीत है। साथ ही ये न्यूनतम योग्यता भी नहीं रखते हैं। इसी आदेश के खिलाफ शीर्ष कोर्ट में अपील की गई थी।
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