जब भी डी. ए. की बढ़ोत्तरी और वेतन आयोग की सिफारिशों के बाद सरकार पर पड़ने वाले वित्तीय "बोझ" की खबर अख़बारों में छपती है तो मैं आत्मग्लानि से भर उठता हूं। मुझे लगता है, जब हमें दी जाने वाली तनखा से सरकार पर बोझ पड़ता है तो हम सब भी सरकार पर "बोझ" ही हुए।
देश की जी.डी.पी. का लगभग 30 से 35 प्रतिशत सरकार फौजों पर खर्च करती है। सरकार ने उसे कभी बोझ नहीं माना। नेताओं और हुक्मरानों पर होने वाले खर्च को कभी बोझ नहीं माना। पूंजीपतियों की लाखों रूपियों की देनदारी को कभी बोझ नहीं माना गया।
केंद्र और राज्य सरकार के करीब दो करोड़ कर्मचारियों और अधिकारियों के द्वारा देश की तमाम व्यवस्थाओं को सुचारू रूप से चलाने में योगदान दिया जाता है। फिर उनको दिया जाने वाला वेतन बोझ कैसे हो जाता है-यह आज तक समझ में नहीं आया ?
यह भी सच है कि देश की करीब 80 फीसदी आबादी असंगठित तथा निजी क्षेत्र में बहुत मामूली वेतन पर काम करती है। ये लोग 2000 से लेकर 15000 रूपिये मासिक के बीच कमाकर विषम परिस्थितियों में जीवन यापन करते हैं।
हमारे हुक्मरान उनके वेतन को बोझ नहीं समझते। एक तरह से वे उसे ही सबको देना चाहते हैं। आउटसोर्सिंग के द्वारा वे यही काम कर रहे हैं।
कभी यह नहीं कहा जाता है कि निजी तथा असंगठित क्षेत्र के लोगों को भी सरकारी क्षेत्र से मिलता-जुलता वेतन दिया जाना चाहिए। वेतन की इस असमानता को दूर किया जाना चाहिए। गरीब तथा बेरोजगारों की मेहनत से देश में अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है।
हम भारत को विकसित देश बनाने का सपना दिखाते हैं। जब तक देश में कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतन को बोझ समझा जायेगा। लोगों की आमदनी के बीच विशाल अंतर रहेगा। सभी क्षेत्रों के कर्मचारियों को समान काम के लिए लगभग समान वेतन नहीं दिया जायेगा, तब तक देश विकसित कैसे होगा ?
कुछ लोगों के अमीर होने से क्या देश भी अमीर हो जाता है ?