इंडिया टुडे समाचार पत्रिका द्वारा इस सप्ताह के अंक में शिक्षा मित्रों की समस्याओ को विस्तार रुप से पत्रिका में स्थान देने तथा पूरे देश को शिक्षा मित्रों की समस्याओ से अवगत कराने के लिए घन्यवाद देते है।खास करके वरिष्ठ षत्रकार आशीश जी को विशेष धन्यवाद देते है।
गाजी इमाम आला
उत्तर प्रदेश में शिक्षा मित्र, मध्य प्रदेश में संविदा शिक्षक-1,2 व 3 और बिहार में नियोजित शिक्षक आदि तरह-तरह के नामों से विभिन्न राज्यों में ठेके पर नियुक्त लाखों शिक्षकों के धरने, रैलियां व भूख हड़तालें कोई हालिया परिघटना नहीं है. इनके बीज 1991 में वैश्वीकरण के बाद विश्व बैंक की थोपी गई संरचनात्मक समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) की शर्त के तहत भारत सरकार के नीतिगत फैसले व राज्य सरकारों के समर्थन से बोए गए थे. इस शर्त के अनुसार सरकार के लिए जरूरी हो गया था कि साल-दर-साल शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज कल्याण के कार्यक्रमों पर सार्वजनिक खर्च घटाया जाए. उक्त नियुक्तियां श्समान काम के लिए समान वेतन्य के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं.
शिक्षकों के खाली पदों पर नियुक्तियां न करने की नीति लगभग पूरे देश में लागू है. अब यह महामारी उच्च शिक्षा में भी फैल गई है. यह स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंटकी शर्त का सीधा परिणाम है. इसके चलते केंद्र व राज्य सरकारों पर पर्याप्त बजट आवंटित करने पर पाबंदी है. यह हकीकत है कि यदि सरकारी स्कूल व्यवस्था बेहतर चलेगी तो शिक्षा का बाजार खुल नहीं पाएगा. तथाकथित शिक्षा अधिकार कानून—2009 भी वैश्वीकरण की इन्हीं नवउदारवादी नीतियों के खाके में बनाया गया. तयशुदा नियमों के तहत दो-तिहाई ऐसे स्कूल चल रहे हैं जहां एक अकेला शिक्षक एक ही कमरे में एक से अधिक कक्षाओं को पढ़ाने का ''चमत्कार" करने को मजबूर है. यह ''चमत्कार" देश के 85 फीसदी बच्चों के लिए किया जाता है.
शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर उपरोक्त नीतिगत संकट का सबसे सटीक व क्रांतिकारी समाधान इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अगस्त 2015 में शिक्षकों की अवैध नियुक्तियों को चुनौती देने वाली याचिका पर अपने फैसले में दिया. अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि सरकारी खजाने से जिस भी व्यक्ति को किसी भी रूप में भुगतान किया जाता है—चाहे वह वेतन के रूप में हो या फिर मानदेय व ठेके या कंसल्टेशन की फीस हो—उसे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल (कक्षा 8 तक) में भेजना लाजमी होगा.
हाइकोर्ट ने कहा कि ऐसा होने पर ही सरकार स्कूलों को पूरा बजट देगी और शिक्षकों की अवैध नियुक्तियां खत्म करके उनको नियमित सेवा शर्तों व सम्मानजनक वेतनमानों पर नियुक्त करेगी. इस फैसले पर भाजपा सरकार न केवल चुप है बल्कि खुलेआम निजाकरण-बाजारीकरण की नीतियों को आगे बढ़ा रही है.
यह गौरतलब है कि दुनिया में एक भी ऐसा विकसित देश नहीं है जिसने अपने सभी बच्चों को निजी स्कूलों के जरिए शिक्षित कर लिया हो. भारत अपवाद नहीं बन सकता. आजादी के 70 वर्षों से चले आ रहे स्कूली शिक्षा के संकट का एक ही ऐतिहासिक विकल्प सामने है—सभी बच्चों के लिए केजी से 12वीं कक्षा तक पूरी तौर पर मुफ्त समान शिक्षा व्यवस्था स्थापित करना जैसा कि सभी विकसित पूंजीवादी और समाजवादी देशों ने अपने इतिहास में किया है.
लेखक अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के अध्यक्ष मंडल के सदस्य हैं.
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गाजी इमाम आला
उत्तर प्रदेश में शिक्षा मित्र, मध्य प्रदेश में संविदा शिक्षक-1,2 व 3 और बिहार में नियोजित शिक्षक आदि तरह-तरह के नामों से विभिन्न राज्यों में ठेके पर नियुक्त लाखों शिक्षकों के धरने, रैलियां व भूख हड़तालें कोई हालिया परिघटना नहीं है. इनके बीज 1991 में वैश्वीकरण के बाद विश्व बैंक की थोपी गई संरचनात्मक समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) की शर्त के तहत भारत सरकार के नीतिगत फैसले व राज्य सरकारों के समर्थन से बोए गए थे. इस शर्त के अनुसार सरकार के लिए जरूरी हो गया था कि साल-दर-साल शिक्षा, स्वास्थ्य व समाज कल्याण के कार्यक्रमों पर सार्वजनिक खर्च घटाया जाए. उक्त नियुक्तियां श्समान काम के लिए समान वेतन्य के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं.
शिक्षकों के खाली पदों पर नियुक्तियां न करने की नीति लगभग पूरे देश में लागू है. अब यह महामारी उच्च शिक्षा में भी फैल गई है. यह स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंटकी शर्त का सीधा परिणाम है. इसके चलते केंद्र व राज्य सरकारों पर पर्याप्त बजट आवंटित करने पर पाबंदी है. यह हकीकत है कि यदि सरकारी स्कूल व्यवस्था बेहतर चलेगी तो शिक्षा का बाजार खुल नहीं पाएगा. तथाकथित शिक्षा अधिकार कानून—2009 भी वैश्वीकरण की इन्हीं नवउदारवादी नीतियों के खाके में बनाया गया. तयशुदा नियमों के तहत दो-तिहाई ऐसे स्कूल चल रहे हैं जहां एक अकेला शिक्षक एक ही कमरे में एक से अधिक कक्षाओं को पढ़ाने का ''चमत्कार" करने को मजबूर है. यह ''चमत्कार" देश के 85 फीसदी बच्चों के लिए किया जाता है.
शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर उपरोक्त नीतिगत संकट का सबसे सटीक व क्रांतिकारी समाधान इलाहाबाद हाइकोर्ट ने अगस्त 2015 में शिक्षकों की अवैध नियुक्तियों को चुनौती देने वाली याचिका पर अपने फैसले में दिया. अदालत ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि सरकारी खजाने से जिस भी व्यक्ति को किसी भी रूप में भुगतान किया जाता है—चाहे वह वेतन के रूप में हो या फिर मानदेय व ठेके या कंसल्टेशन की फीस हो—उसे अपने बच्चों को सरकारी स्कूल (कक्षा 8 तक) में भेजना लाजमी होगा.
हाइकोर्ट ने कहा कि ऐसा होने पर ही सरकार स्कूलों को पूरा बजट देगी और शिक्षकों की अवैध नियुक्तियां खत्म करके उनको नियमित सेवा शर्तों व सम्मानजनक वेतनमानों पर नियुक्त करेगी. इस फैसले पर भाजपा सरकार न केवल चुप है बल्कि खुलेआम निजाकरण-बाजारीकरण की नीतियों को आगे बढ़ा रही है.
यह गौरतलब है कि दुनिया में एक भी ऐसा विकसित देश नहीं है जिसने अपने सभी बच्चों को निजी स्कूलों के जरिए शिक्षित कर लिया हो. भारत अपवाद नहीं बन सकता. आजादी के 70 वर्षों से चले आ रहे स्कूली शिक्षा के संकट का एक ही ऐतिहासिक विकल्प सामने है—सभी बच्चों के लिए केजी से 12वीं कक्षा तक पूरी तौर पर मुफ्त समान शिक्षा व्यवस्था स्थापित करना जैसा कि सभी विकसित पूंजीवादी और समाजवादी देशों ने अपने इतिहास में किया है.
लेखक अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के अध्यक्ष मंडल के सदस्य हैं.
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