आज विभाग के पास प्राथमिक पाठशालाओं में बीएड, एमएड, एम. फिल व पीएचडी अध्यापक भी हैं, जिनके पास प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाने का अनुभव भी है। उन्हें जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों में नए अध्यापकों को तैयार करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है। प्रत्येक पाठशाला में कक्षावार अध्यापक होने के साथ-साथ नर्सरी कक्षाओं के बच्चों के लिए नर्सरी अध्यापकों की नियुक्ति करनी चाहिए…
आजादी के पश्चात एक समय था जब पहली कक्षा में अधिकतर 10 से 12 साल की आयु के बच्चे दाखिला लेते थे। बहुत कम बच्चे स्कूल जाते थे और ज्यादातर बच्चों को स्कूल भेजा ही नहीं जाता था। स्कूलों की कमी थी, बहुत दूर पैदल चल कर स्कूल पहुंचना पड़ता था। समय बीता, समय के साथ-साथ देश में शिक्षण संस्थान बढ़े, स्कूल में दाखिल होने वाले छात्रों की संख्या भी बढ़ी, स्कूलों की संख्या के साथ-साथ अध्यापकों और इसके प्रबंधन में लगे लोगों की संख्या भी बढ़ी। 70 के दशक के अंत में पूरे प्रदेश में यह मांग बढ़ी कि शिक्षा के क्षेत्र में इतने संस्थान और प्रबंधन में लगे लोगों का प्रशासन पुराने ढांचे पर नहीं चल सकता, जिसमें प्राथमिक शिक्षा उच्चतर शिक्षा के प्रशासन के अधीन थी। प्राथमिक शिक्षा का प्रशासन अलग से हो। उस समय की प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति अध्यापकों में इतना रोष बढ़ता गया कि जिन शिक्षकों को बच्चों को पढ़ाना था, वे सड़क पर उतर आए और आखिरकार 1986 में प्राथमिक शिक्षा निदेशालय का एक अलग प्रशासनिक विंग प्रदेश में प्राइमरी शिक्षा रूपी पौधे की देखभाल और पालन-पोषण के लिए गठित किया गया। सभी जिलों में जिला शिक्षा अधिकारी (प्राथमिक) और जिलों की भौगोलिक स्थिति व स्कूलों की संख्या को देखते हुए प्रत्येक जिला में प्राथमिक शिक्षा खंडों का गठन किया गया। खंडों के अधीन 4 से 6 स्कूलों का एक अलग यूनिट बनाया गया, जिसे केंद्र स्कूल कहा गया। इस नए ढांचे ने एक टीम के रूप में कार्य प्रारंभ किया और हिमाचल प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा को शिखर की ओर ले चले। राज्य की साक्षरता दर को भी पूरे भारत में सम्मानजनक स्तर पर पहुंचाया। इस व्यवस्था में भी बहुत सी कमियां रह गईं। सभी प्राथमिक विद्यालयों में मुख्य शिक्षक के पदों का सृजन होना था, जिससे हर पाठशाला एक मुखिया के अधीन फलती-फूलती। खंड प्राथमिक शिक्षा अधिकारी के ऊपर, इस व्यवस्था में प्राथमिक शिक्षकों की भागीदारी ही नहीं दी गई। प्रदेश में प्राथमिक शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए चल रहे प्रशिक्षण संस्थानों में किसी भी प्राथमिक शिक्षक के अनुभव को हिस्सा नहीं बनाया गया। शिक्षा के सार्वभौमीकरण के लिए एक अलग प्रयास हुआ जिसमें प्रदेश के 4 जिलों में डीपीईपी प्रोग्राम प्रारंभ किया गया। नए प्राथमिक विद्यालय खोले गए। विद्यालयों के भवनों व पढ़ने-पढ़ाने के क्रियाकलापों को आकर्षित करने के लिए शिक्षण अधिगम सामग्री सहित इन जिलों में बहुत सा कार्य किया गया।
इससे निःसंदेह बच्चों को गुणात्मक शिक्षा के साथ-साथ बच्चों के स्कूल में नामांकन में भी वृद्धि हुई। बाद के समय में लोग पढ़-लिख गए, बेरोजगारी ने लोगों को निजी विद्यालय खोलने का अवसर प्रदान किया। ऐसी होड़ लग गई कि पूरे प्रदेश के कुछ ही क्षेत्र अछूते रहे, बाकी पूरे प्रदेश में प्राइवेट स्कूलों का जाल बिछ गया, जहां पर समय की मांग के अनुसार 3 साल का बच्चा दाखिल होने लगा। उसे टाई, बेल्ट, लुभावनी पोशाक के साथ-साथ घर-द्वार से ही स्कूल वैन सुविधा मिलने लगी। इस कारण धीरे-धीरे सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या गिरने लगी। जहां 1986 में हिमाचल सरकार ने प्रत्येक स्कूल में 3 अध्यापक दिए थे, वहीं अब सर्व शिक्षा अभियान के मानकों के अनुसार बच्चों की संख्या के अनुपात में प्रत्येक पाठशाला में दो ही अध्यापक रह गए। हिमाचल प्रदेश के प्राथमिक शिक्षकों ने समय रहते सरकारी स्कूलों में भी नर्सरी कक्षाएं शुरू करने की आवाज उठाई, लेकिन इस तरह की व्यवस्था नहीं हो सकी। कोई भी अभिभावक अपने बच्चे को 5 साल तक अपने घर पर या आंगनबाड़ी में नहीं रखना चाहता था। वे उसे स्कूल की औपचारिक शिक्षा के साथ आगे बढ़ता देखना चाहते थे। कुछ स्कूलों ने विभाग के निर्देशों की सीमाएं लांघते हुए, नर्सरी कक्षा में बच्चों का दाखिला शुरू किया। लेकिन कोई एक अधिकारी आता और उस स्कूल की बहुत प्रशंसा करता, तो वहीं दूसरा अधिकारी उसी स्कूल में डांट लगा कर चला जाता है कि बिना सरकारी आदेशों के आपने स्कूल में नर्सरी के बच्चों को कैसे बिठा लिया है। इसी दो अलग-अलग विचारधारा के पाटों में प्राथमिक अध्यापक पिछले कई वर्षों तक पिसता आ रहा है। आज जैसे ही नई शिक्षा नीति 2020 आई, जिसमें समय को ध्यान में रखकर व वैज्ञानिक प्रमाण के आधार पर 3 साल के बच्चे को स्कूल में प्रवेश देने के दरवाजे खुले हैं, प्राथमिक शिक्षक इससे खुश है।
हिमाचल प्रदेश सरकार ने प्राथमिक पाठशाला में नर्सरी कक्षाएं प्रारंभ करने के निर्देश दिए। इसकी शुरुआत के एक महीने के अंदर ही प्राथमिक स्कूलों में नामांकन का ग्राफ एकदम ऊपर बढ़ा है। कोरोना संकट में भी अध्यापक उन नन्हें-नन्हें बच्चों तक, उनके अभिभावकों के माध्यम से व्हाट्सऐप, गूगल मीट, जूम ऐप, टेलीग्राम, फेसबुक आदि से अपनी पहुंच बना रहा है। बहरहाल हिमाचल प्रदेश में 1986 से ही अलग प्राथमिक शिक्षा निदेशालय बनाकर निचले स्तर तक अलग प्रशासनिक ढांचा खड़ा किया गया है। इस ढांचे को और सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। सभी प्राथमिक स्कूलों में मुख्य शिक्षक के पद सृजित किए जाने की आवश्यकता है। आज विभाग के पास प्राथमिक पाठशालाओं में बीएड, एमएड, एम. फिल व पीएचडी अध्यापक भी हैं, जिनके पास प्राथमिक कक्षाओं में पढ़ाने का अनुभव भी है। उन्हें जिला शिक्षा एवं प्रशिक्षण संस्थानों में नए अध्यापकों को तैयार करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है। प्रत्येक पाठशाला में कक्षावार अध्यापक होने के साथ-साथ नर्सरी कक्षाओं के बच्चों के लिए नर्सरी अध्यापकों की नियुक्ति करनी चाहिए। सभी खंड प्रारंभिक शिक्षा अधिकारी कार्यालयों में कम से कम 2 पद सहायक खंड प्रारंभिक शिक्षा अधिकारी के सृजित करने से जमीनी स्तर पर स्कूलों और अध्यापकों को उनका सही मार्गदर्शन मिल सकेगा। ऐसी व्यवस्था करने से इसका सीधा लाभ विद्यार्थियों को मिलेगा। शिक्षा बच्चे के व्यक्तित्व और उसके सर्वांगीण विकास में सहायक है, तो हमारी योजनाओं का लाभ बच्चों को उनकी पूर्व और प्रारंभिक शिक्षा से ही मिलना चाहिए।
0 Comments