Ticker

6/recent/ticker-posts

Ad Code

…………….आखिर शिक्षक है कौन………???

समाज जिस समय और व्यवस्था में सर्वाधिक उत्पीड़ित हो, वहां शिक्षकों के सम्मान में प्रशस्ति-गान के बजाय उनकी सामाजिक भूमिका की जांच-पड़ताल अधिक जरुरी हो उठता है। भारतीय समाज मूल रूप से पुजवैयों का समाज रहा है, जहाँ आस्था इतनी प्रबल मात्रा में होती है कि सामाजिक प्रश्न से अधिक जरूरी यह हो उठता है कि प्रश्न किसने और किससे किया है।

जिस प्रकार से दलित सवर्ण से प्रश्न नहीं कर सकते, नौकर मालिक से नहीं, भक्त भगवान से नहीं ठीक, वैसे ही छात्र शिक्षक से नहीं.

यदि ऐसा नहीं होता तो यह संभव ही नहीं था कि देश का कोना-कोना जल रहा होता और शिक्षक अपने दैनिक जीवन में मशगूल होते.

ऐसी परिस्थिति में यह निहायत ही आवश्यक हो जाता है कि शिक्षक आखिर किसे समझा जाय?

लाखों रूपये झोले में डालकर नौकरी ख़रीदने वाले, सुबह से शाम तक झोला ढ़ो-ढ़ोकर नौकरी पाने वाले या व्यवस्था को समझने का साहस दिखाने वाले एकांत जीवन काटने को मजबूर किए गए साहसी शिक्षक?

हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या है कि हम किस तरह के शिक्षकों का चुनाव करें? वह शिक्षक जो हमें व्यवस्था का गुणगान करना सिखाता है अथवा वह जो हमें विद्रोही बनाता है, क्योंकि इसके इतर तो सारे मार्ग बंद हैं।

आज शिक्षक दिवस पर गुणगान में शिक्षक चालीसा पढ़े जा रहे हैं, शिक्षक छात्रों को मूल्यांकन करने की प्रेरणा भी दे रहे हैं लेकिन शिक्षक स्वयं का मूल्यांकन कब करेंगे? क्या वे यह मानकर चलते हैं कि सामाजिक परिवर्तन उनकी जिम्मेदारी नहीं अथवा वे इस कार्य में कुछ भी करने की स्थिति में नहीं हैं.
दोनों ही स्थिति में यह साबित होता है कि शिक्षकों की यह प्रजाति कायर और रीढ़–विहीन है.

प्रेमचंद जब यह कहते हैं कि— ‘मुल्क को तालीम की उससे ज्यादा जरुरत है जितनी की फ़ौज की’, तब वे इस बात को भी विस्तार दे रहे होते हैं कि तालीम देने वाले शिक्षकों की भूमिका कैसी होनी चाहिए?

ऐंठ और एक बेहतर जिन्दगी की लालसा में लिप्त शिक्षक स्वयं को संतुष्ट और सफल मानकर जिन्दगी गुज़ार सकते हैं, लेकिन वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है.

शिक्षा जब निजीकरण के दौर से गुजर रही हो, बाजारवाद ने जब भारतीय शिक्षा-प्रणाली को लगभग ध्वस्त कर रखा हो, समाज का एक बड़ा तबका शिक्षा से अछूता हो, ऐसी स्थिति में अपनी आरती उतरवाने के बजाय शिक्षकों को यह सोचना चाहिए कि शोषण के इस चक्र में उनकी भूमिका किस प्रकार की होनी चाहिए.

इसी समाज में जब जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसे शिक्षक शिक्षक-दिवस में स्वयं की भूमिका और वर्तमान संदर्भ में शिक्षा की स्थिति पर मूल्यांकन कर रहे होते हैं तब उनकी चिंताओं की गहराई को समझा जा सकता है.

….लेकिन सवाल यह उठता है कि हमारे पास ऐसे कितने शिक्षक हैं जो बार-बार सामाजिक भूमिका के प्रति ख़ुद को तैयार करने की कोशिश करते हैं?
नामवर सिंह से लेकर लौंडे-नुमा शिक्षकों की एक पूरी जमात है जिन्होंने वर्तमान व्यवस्था के आगे घुटने टेक दिए हैं.

उनका यह घुटना टेकना उनकी जिन्दगी में सुख-सुविधाओं की बाढ़ तो अवश्य ला देता है, लेकिन वे शायद इसके वीभत्स परिणामों से वाकिफ नहीं होते हैं.

वे ये जान ही नहीं पाते हैं कि जिस समाज को बदलने में छात्र-शिक्षक की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है उसे वे स्वार्थों की पूर्ति हेतु नस्लों को बर्बाद कर लगभग ख़त्म कर देते हैं.

वे यह भी भूल जाते हैं कि हिंदी साहित्य में ही आदि काल से अब तक वे नामवर नहीं याद किये जाते हैं जिन्होंने अपनी महत्वकांक्षा की पूर्ति हेतु व्यवस्था से समझौता कर लिया बल्कि वे आदरणीय कहे जाते हैं जिन्होंने लड़ाई के लिए मार्ग बनाने में अपनी भूमिका अदा की है.
इतिहास के न्यायालय में बड़े–बड़े नामवर अक्सर मूक खड़े होते हैं और उनके वजूद को याद रखने वाला कोई नहीं होता है.

शिक्षक-तंत्र के इस खोखले व्यवसाय में भी ऐसे शिक्षक हैं जो समाज के प्रति अपनी भूमिका को रचनात्मक बनाये हुए हैं. गिने-चुने शिक्षकों की यही रचनात्मकता इस उद्योग को जिन्दा किये हुए है.
प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी जी का बार-बार व्यवस्था द्वारा गैर-सामाजिक नीतियों का खंडन करना, डॉ. प्रेम सिंह द्वारा राजनैतिक स्तर पर प्रतिरोध की जमीन तैयार करना, प्रो. अजय तिवारी का चौबीसों घंटे जातिवाद और सांप्रदायिकता के विरोध में लिखना तथा आशुतोष और संजीव जैसे सैंकड़ों शिक्षकों का सड़कों पर प्रतिरोध जैसे सकारात्मक कदम ही हैं जिससे इस क्षेत्र में एक स्तर तक विश्वास टिका हुआ है अन्यथा व्यक्तिगत तौर पर उंचाईयों को पाने के क्रम में असंख्य शिक्षकों ने इस क्षेत्र को लगभग दुकान बना कर रख दिया है.
संजीव ‘मज़दूर’ झा (पीएचडी) महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा
संजीव ‘मज़दूर’ झा (पीएचडी)
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय
वर्धा
निजीकरण की गोद में बैठे इस दुकान का परिणाम आंशिक रूप में हमारे सामने है.

आज हमारे समाज में सभी के लिए शिक्षित हो पाना लगभग समाप्त हो गया है. शिक्षा अमीरों की लगभग जागीर बन गयी है और हम किनारे से ख़ुद को दास बनने की प्रक्रिया को देख भर रहे हैं.

ध्यान रहे भक्ति-भाव में लीन ऐसे अध्यापक जिन्होंने सत्ता के हिसाब से ख़ुद को फिट कर लिया है वे हमारे आने वाले नस्लों के लिए यमराज से कम नहीं.

इसलिए यह जरुरी है कि हर स्तर पर उनका विरोध किया जाय और यह विरोध तभी संभव हो पायेगा जब हम रचनात्मक माहौल स्थापित कर पाएंगे, जहाँ हम व्यक्तिगत हितों को हटाकर समाज-हित में अपनी भूमिका तय कर पायें.
परिवर्तन के लिए प्रतिरोध के सभी कोण मजबूत होने जरूरी होते हैं.

इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि इसमें सबसे मजबूत कोण शिक्षण-संस्थानों का है जिसकी भूमिका संभवतः शिक्षकों द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं.

यदि समय रहते इस कोण को ऐसे शिक्षकों से बचाया नहीं गया जिनका व्यक्तिगत और पारिवारिक हित हमेशा से सामाजिक हित पर भारी रहा है तो निश्चित ही हमें एक बड़ी समस्या का सामना करना पड़ेगा.

शिक्षा हम सभी भारतीयों का हक़ है और वे सभी शिक्षक, राजनेता, पूंजीपति हमारे दुश्मन हैं जो इस हक़ को हमसे दूर करने में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं.

शिक्षक दिवस की सार्थकता इसी में है कि शिक्षक अपनी भूमिका का मूल्यांकन करे वरना वक़्त आने पर जब भक्त भगवान के अस्तित्व को नकार देता है तो स्वाभाविक है कि शिक्षक का अस्तित्व भी चरमरा सकता है.
sponsored links:
ख़बरें अब तक - 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती - Today's Headlines

Post a Comment

0 Comments

latest updates

latest updates