*तू_इधर_उधर_की_न_बात_कर,*
*ये_बता_कि_काफिला_क्यों_लुटा.*
*मुझे_रहजनों_से_गिला_नहीं,*
*तेरी_रहबरी_पर_सवाल_है.!*
*ये_बता_कि_काफिला_क्यों_लुटा.*
*मुझे_रहजनों_से_गिला_नहीं,*
*तेरी_रहबरी_पर_सवाल_है.!*
*-आज एक बड़ा सवाल-* उत्तर प्रदेश के प्रत्येक शिक्षामित्र की आंखों में
तैर रहा है कि उन्हें इंसाफ कब मिलेगा? एक दशक से भी ज्यादा वक्त से
प्राथमिक शिक्षा के लौ को घोर अनियमितताओं के
अंधेरों में भी रौशन रखने वाली यह जमात रातों-रात
सरकार के रहमो करम पर छोड़ दी गई है. या यूं कहें कि बेरोजगार हो गई है.
माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले ने 25 जुलाई की रात न जाने कितने घरों के
चूल्हों को आग से महरूम कर दिया. न जाने कितने बच्चों ने अपने अभिभावको की
आंखों में तैरते आंसुओं में अपने ख्वाबों की नाव को डूबते हुए देख लिया था.
किसी की फीस अधर में लटक गई थी तो किसी की बेटी की डोली पर ग्रहण लग गया.
अम्मा के इलाज को शहर में कराने का सपना भी छप्पर से टपकते पानी की बूंदों
की तरह धीरे-धीरे क्षीण होने लगा है. वाह रे कानून! एक झटके में सब खत्म कर
दिया, और मुआ जमाना कहता है कि आजकल कानून की कोई हैसियत नहीं. सुप्रीम
कोर्ट के फैसले ने भूचाल ला दिया है. निर्णय न शिक्षामित्रों के गले उतर
रहा है और न ही पच रहा है. नतीजतन न्यायालय के आदेश को अपने पक्ष का न मान
कर हजारों की संख्या में शिक्षामित्र सड़क पर उतर आए हैं. यूपी के अधिकांश
जिलों में प्रदर्शन चल रहा है. दरअसल यह कुल दास्तान सत्ता के उस
अधिनायकवादी चरित्र का प्राकट्य है जो समाज के निर्धन, मुफलिस,जरूरतमंद और
मोहताज किसान मजदूरों की जमात की बेबसी को अपने पूंजीवादी मंसूबों की
पूर्ति के लिए अवसर मान उपयोग करती है. चाहे उसकी बुनियाद में हजारों लाखों
किसान-मजदूर परिवारों के सपने, ख्वाहिशें, अरमानों और खूबसूरत मुस्तकबिल
की आरजुओं की लाश दफ्न हो जाए. तभी तो आज से 18 साल पहले उत्तर प्रदेश की
चुनी हुई सरकार ने गांव के उन नासमझ नौजवान युवकों के साथ जिन्होंने अपनी
पढ़ाई अभी खत्म भी नहीं की थी, एक साजिश रची थी, साजिश थी उन युवकों को
बहुत ही कम पारिश्रमिक पर समाज सेवा के नाम पर शिक्षक बनाने की.दीगर यह है
कि वे सभी अपने-अपने गांव में होनहार प्रतिभाएं थीं. मात्र 2250₹ प्रतिमाह
के मानदेय पर अपनी संपूर्ण निष्ठा और क्षमता कुर्बान करने वाली उत्तर
प्रदेश की उस अनगढ और अल्हड़ नौजवानी को यह कतई एहसास नहीं था कि *शिक्षा
मित्र बनाने के बहाने हुकूमत ने उसके पूरे भविष्य को हमेशा के लिए बंधक बना
लिया है. सेवा शर्तें कुछ ऐसी थी कि अपरोक्ष रूप से इन युवकों पर अपनी
शैक्षिक योग्यता बढ़ाने पर प्रतिबंध सा लग गया. हालांकि प्राइवेट और दूरस्थ
शिक्षा के माध्यम से शिक्षामित्रों ने अपनी शैक्षणिक और एकेडमिक योग्यता
को विस्तार दिया. यह कुछ वैसा ही मामला था कि जैसे गुरु द्रोण द्वारा
एकलव्य का अंगूठा कटवा लेने के पश्चात भी एकलव्य ने अभ्यास नहीं छोड़ा और
आज इतिहास उन्हें महान धनुर्धर के रूप में याद करता है. ध्यातव्य है कि यदि
उस समय इन युवकों ने शिक्षा मित्र बनने की गलती न की होती तो इनमें से
अधिकांश मुख्यधारा में अपनी पढ़ाई जारी रख कुछ और बेहतर कर सकते थे.!* हैरत
है कि यही शिक्षा मित्र पूरे 15 साल तक बच्चों को पढ़ाते रहे पर किसी ने
इनकी योग्यता और शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा नहीं किया? लेकिन इनके
सहायक अध्यापक बनते ही ये लोग अयोग्य हो गए. मतलब सवाल गुणवत्ता का नहीं
ओहदे का है. यदि ऐसा नहीं है तो यही लोग गुजरे दो दशक तक इसी अल्प राशि
मानदेय पर शिक्षण कार्य करते रहे तब तक किसी को कोई परेशानी क्यों नहीं
हुई? आज अगर इनकी योग्यता पर सवाल उठ रहे हैं तो इसकी जिम्मेदार वह
अधिनायकवादी सत्ता चरित्र की सरकारें हैं. हैरत है कि माननीय अदालत ने इस
विषय पर कुछ नहीं कहा. माननीय उच्चतम न्यायालय ने समायोजन के तकनीकी पहलुओं
के सम्मुख सभी अन्य पहलुओं को नजरअंदाज कर दिया. न समायोजन करने वाली
सरकार को सजा दी, न समायोजन नीति बनाने वाली, उसे क्रियान्वित करने वाली
भारतीय मेधा की शलाका जमात आईएएस अधिकारियों पर कोई कार्यवाही की और ना ही
यह बताया गया कि अब लगभग दो दशक सेवा देने के पश्चात, अपने करियर के संध्या
काल की ओर बढ़ती 35 से 40 वर्ष आयु वाली ए जमात क्या करे?
*नियमों में ढील देने का राज्य सरकार को अधिकार नहीं, नियुक्ति अवैध,
समायोजन अवैध. इन सबके लिए पूर्व सरकार जिम्मेदार और दंड भुगतें
शिक्षामित्र. क्या लोकतंत्र में किसी चुनी हुई सरकार के गुनाह या
अकर्मण्यता की सजा कोर्ट कर्मचारियों को दे, क्या यह न्याय संगत है? क्यों
नहीं नियमावली में संशोधन करने वाली भारतीय मेधा की प्रतीक IAS संवर्ग के
उन अधिकारियों पर सरकार ने दंडात्मक कार्यवाही की, जिनके कारण उत्तर प्रदेश
सरकार को समूचे राष्ट्र के सम्मुख लज्जित होना पड़ा. जनपद उन्नाव में कथित
जहरीली शराब प्रकरण में तत्काल पुलिस अधीक्षक बदल जाता है और यहां
रातों-रात 172000 जमात सरकार की अकर्मण्यता के कारण बेरोजगार हो जाती है और
कोर्ट समायोजन करने वाली सरकार और अधिकारियों पर कोई सवाल नहीं खड़ा करती
l* अब यह महसूस हो रहा है कि जैसे सियासत ने वादों का स्वर्ण मृग दौड़ा कर
फिर एक बार भोली सीता का हरण कर लिया है. किंतु यह भी दीगर है कि जब सीता
का हरण होता है तो रावण-वध की पटकथा पहले ही लिखी जा चुकी होती है. साल
2017 के विधानसभा चुनावों में जनमानस ने वादों का स्वर्ण मृग दौड़ा, भोली
सीता का हरण करने वाली जमात को तो उसके अंजाम तक पहुंचा दिया लेकिन क्या
त्रेता की भांति छली गई सीता (वर्तमान संदर्भ में शिक्षा मित्र)को पृथ्वी
में समाना होगा! अब जब एक योगी, राजयोगी बन उत्तर प्रदेश की सियासत की
बागडोर संभाल रहा है तो आशा की जा सकती है कि व्यवस्था ने जो अन्याय त्रेता
में किया था उसे एक योगी के रहते कलयुग में न दोहराया जाए. शिक्षामित्रों
के लंबे सहयोग और समर्पण को देखते हुए वर्तमान सरकार कौन सी सम्मानजनक नयी
संभावनाएं सृजित करेगी यह तो समय ही बताएगा किंतु इतना तो दिख रहा है कि
सियासत के छल ने शिक्षामित्रों के ख्वाबों को छलनी कर दिया है. मुझे कवि
शिव ओम अंबर का एक शेर याद आ रहा है कि
*ये_सियासत_की_तवायफ_का_दुपट्टा_है,*
*ये_किसी_के_आंसुओं_से_तर_नहीं_होता.!*
*ये_सियासत_की_तवायफ_का_दुपट्टा_है,*
*ये_किसी_के_आंसुओं_से_तर_नहीं_होता.!*
चाहे 172000 शिक्षामित्र बिलाप करें या टीईटी उत्तीर्ण 4 लाख युवा जश्न मनाएं लेकिन सियासत जारी रहेगी,छल होता रहेगा.
लेखक - प्रणय विक्रम सिंह (न्यूज टाइम्स पोस्ट)
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