उत्तर प्रदेश के सिद्धार्थनगर के बरगदवा ब्लॉक के छपरहा प्राइमरी विद्यालय
में सहायक शिक्षक रहे 45 वर्षीय इंद्रजीत यादव को अब कुछ सूझ नहीं रहा है.
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दो
साल पहले शिक्षा मित्र से सहायक शिक्षक के पद पर समायोजित होने पर उन्हें
करीब 35 हजार रु. मिलने लगे थे लेकिन अब सरकार की ओर से उन्हें महज 10 हजार
रु. मासिक वेतन देने का फैसला लिया गया. अब हाल यह है कि उनके बेटे और
बेटी को सरकारी स्कूल में बेसिक ट्रेनिंग सर्टिफिकेट (बीटीसी) की पढ़ाई के
लिए 42-42 हजार रुपयों की जरूरत थी, पर वे इसका इंतजाम नहीं कर सके. लिहाजा
इस साल सितंबर में बच्चों के बीटीसी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी
इंद्रजीत सरकारी स्कूल में उन्हें दाखिला नहीं दिला सके.
यह
किस्सा सिर्फ इंद्रजीत तक सीमित नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश में हजारों
शिक्षा मित्र इसी तरह की स्थितियों से दो-चार हैं. 25 जुलाई को जब सुप्रीम
कोर्ट ने शिक्षा मित्रों के सहायक शिक्षक के रूप में समायोजन रद्द करने के
इलाहाबाद हाइकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा तो उत्तर प्रदेश के हर जिले में
उनका गुस्सा फूट पड़ा और विरोध-प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया. राज्य
में कानून-व्यवस्था चरमरा गई. सबसे ज्यादा संकट में तो करीब 10 हजार के वे
प्राथमिक स्कूल आ गए थे, जो सहायक अध्यापक बने इन शिक्षा मित्रों के भरोसे
ही चल रहे हैं. इनमें ताला लटक गया.
इंद्रजीत की तरह ही परेशान गोरखपुर के बेलपार ब्लॉक में
मौजूद प्राइमरी स्कूल भिनाखिनी में शिक्षा मित्र 41 वर्षीय बेचन सिंह
बताते हैं, ''समायोजन रद्द होने का शिकार बने शिक्षा मित्रों पर चौतरफा मार
पड़ी है. अब हमें अध्यापक पात्रता परीक्षा (टीईटी) के बाद अध्यापक चयन
परीक्षा भी पास करनी होगी." दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि शिक्षा
मित्र दो बार में पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही अध्यापक पद की
नई भर्तियों के लिए आवेदन करके योग्यता के आधार पर चयनित हो सकते हैं.
इलाज ही बन गया मर्ज
उत्तर प्रदेश की प्रारंभिक शिक्षा राजनैतिक दांवपेच के भी गवाह रहे हैं.
इसी की बानगी हैं शिक्षा मित्र. प्रदेश में बदहाल पड़ी प्रारंभिक शिक्षा की
गाड़ी को पटरी पर लाने के लिए 1999 में ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा मित्र
तैनात करने की योजना तैयार की गई थी. इन शिक्षा मित्रों का चयन ग्राम
शिक्षा समितियों के जरिए किया गया जिसके अध्यक्ष ग्राम प्रधान थे. प्राइमरी
स्कूलों में तैनात होने वाले इन शिक्षा मित्रों के संबंध में जारी
शासनादेश में साफ लिखा गया कि इसे किसी तरह का सेवायोजन नहीं माना जाएगा.
2010 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद शिक्षकों की तैनाती का
मानक तय करने का जिम्मा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एनसीटीई) के हाथ
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एनसीटीई ने एक अधिसूचना जारी कर शिक्षकों की तैनाती के
लिए टीईटी को पास करना अनिवार्य कर दिया. इससे पहले तक उनमें शिक्षकों की
तैनाती का सामान्य मानक स्नातक के साथ बीटीसी प्रशिक्षण था. 2014 में राज्य
सरकार ने कानून में संशोधन करके स्नातक की योग्यता रखने वाले शिक्षा
मित्रों को प्राइमरी स्कूलों में सहायक शिक्षक के तौर पर नियुक्त करने का
रास्ता साफ कर दिया.
कभी
2,250 रु. मासिक मानदेय पाने वाले शिक्षा मित्र सातवां वेतनमान लागू होने
के बाद से सहायक शिक्षक के रूप में 35 हजार रु. से अधिक तनख्वाह पाने लगे.
माध्यमिक शिक्षक संघ के सचिव डॉ. आर.पी. मिश्र कहते हैं, ''सरकार ने इस
संशोधन के जरिए शिक्षकों की तैनाती की न्यूनतम योग्यता टीईटी को भी हटा
दिया. जबकि ऐसा करने का अधिकार केवल केंद्र सरकार की संस्था एनसीटीई को
है." इसी तर्क को ध्यान में रखते हुए इलाहाबाद हाइकोर्ट ने 12 सितंबर, 2015
को शिक्षा मित्रों का सहायक अध्यापक पद पर किया गया समायोजन रद्द कर दिया.
कुछ ही दिन बाद सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी थी.
फिर इस साल सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा मित्रों को दो बार
में पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही अध्यापक पद नियुक्त करने की
बात कही. शिक्षा मित्रों के भारी विरोध-प्रदर्शन के बाद डैमेज कंट्रोल के
लिए सरकार ने 5 पांच सितंबर को कैबिनेट बैठक में शिक्षा मित्रों को पहली
अगस्त से दस हजार रु. मानदेय देने का फैसला लिया.
उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षा मित्र संघ ने इस पूरे
प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की है. संघ के अध्यक्ष
गाजी इमाम आला का कहना है, ''कोर्ट ने अपने निर्णय में शिक्षा मित्रों को
पात्रता परीक्षा में आयु में छूट देने, भारांक देने की बात कही थी लेकिन
सरकार ने इस पर कोई फैसला नहीं लिया है. इसके अलावा राष्ट्रीय अध्यापक
शिक्षा परिषद में भी शिक्षकों की पात्रता परीक्षा कराने का नियम तो है
लेकिन शिक्षक चयन प्रक्रिया का कोई जिक्र नहीं है. ऐसे में अध्यापक चयन
प्रक्रिया शुरू करना नियमों से परे है." हालांकि बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री,
स्वतंत्र प्रभारी अनुपमा जायसवाल कहती हैं, ''सरकार सुप्रीम कोर्ट के
निर्णय के अनुपालन में शिक्षा मित्रों को हर संभव रियायत दी जा रही है."
यहां भी तकरार
शिक्षा मित्रों को लेकर जंग सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है. 2003
में बिहार में भी शिक्षा मित्रों की बहाली के बाद से लगातार उनका
विरोध-प्रदर्शन भी होता रहा है. अब एक बार फिर से यहां नियोजित शिक्षक और
सरकार टकराव की राह पर हैं. उन्होंने आंदोलन की चेतावनी भी दी है. इन
नियोजित शिक्षकों में शिक्षा मित्र भी शामिल हैं. 2005 में शिक्षा मित्रों
को नियोजित शिक्षक बना दिया गया था. दरअसल, एक ओर जहां उत्तर प्रदेश में
अदालती फैसला शिक्षा मित्रों पर गाज बनकर टूटा, तो बिहार में उम्मीद की
किरण बनकर आया है.
31
अक्तूबर को पटना हाइकोर्ट ने अपने फैसले में सरकार को इन नियोजित शिक्षकों
को ''समान काम के बदले समान वेतन" देने का आदेश दिया है. बिहार
परिवर्तनकारी शिक्षक संघ के नवादा जिलाध्यक्ष प्रभाकर कुमार कहते हैं,
''नियोजित शिक्षकों से बच्चों को पढ़ाने के अलावा मिड डे मील, जगगणना,
पशुगणना, बाल पंजी संधारण, बीएलओ, जागरूकता कार्यक्रम समेत कई तरह के कामों
में मदद ली जाती है, लेकिन उन्हें पुराने शिक्षकों के समान वेतन भुगतान
नहीं किया जाता है." दरअसल अन्य पुराने शिक्षकों का वेतन इन नियोजित
शिक्षकों से करीब ढाई गुना ज्यादा है.
लेकिन हाइकोर्ट के फैसले के बाद इन शिक्षकों में जहां
उम्मीद जगी है तो दूसरी ओर राज्य सरकार इसे टालने के मूड में है. राज्य के
शिक्षा मंत्री कृष्णनंदन प्रसाद वर्मा कहते हैं, ''हम फैसले का
गंभीरतापूर्वक अध्ययन करेंगे, फिर राज्य सरकार कदम उठाएगी. जरूरी हुआ तो इस
फैसले के खिलाफ हम सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे." सरकार की चिंता है कि
फैसले को लागू करने से राज्य पर आर्थिक बोझ बढ़ जाएगा. पर पटना
विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी इस दलील को खारिज करते
हैं, ''शिक्षकों के वेतन के मसले पर बजट का बहाना नहीं बनाया जा सकता.
जरूरत हो तो अन्य मदों में कटौती करके शिक्षा मद में खर्च किया जाना
चाहिए."
नियोजित
शिक्षकों के कई संघ राज्य सरकार की इस रणनीति के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं.
12 नवंबर को 23 शिक्षक संघों के नेताओं की बैठक हुई और समान वेतनमान के
आंदोलन को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया. परिवर्तनकारी प्रारंभिक शिक्षक
संघ के बिहार प्रदेश अध्यक्ष वंशीधर ब्रजवासी कहते हैं, ''हमारी मांग
9,300-34,800 रु. वेतनमान की है, जो पुराने शिक्षकों को मिलता है. इसके लिए
कानूनी लड़ाई से लेकर सड़क तक आंदोलन किया जाएगा." टकराव की स्थिति यहां तक
है कि राज्य सरकार की ओर से उनके पक्ष में तीन माह के भीतर फैसला नहीं लेने
पर शिक्षक संघों ने अगले साल के शुरुआती महीनों में होने वाली बोर्ड
परीक्षाओं के बहिष्कार की भी चेतावनी दी है.
उधर, राजस्थान में 6 नवंबर को अजमेर में ''विद्यार्थी
मित्र" सफेद टोपियों पर बेरोजगार लिखकर घर-घर घूमे. वे अजमेर उप-चुनाव में
भारतीय जनता पार्टी को वोट न देने की अपील करके अपना विरोध जता रहे थे.
दरअसल शिक्षा मित्रों की तरह ही राजस्थान में विद्यार्थी मित्र हैं. पहाड़ी
राज्य उत्तराखंड में भी शिक्षा मित्र ऐसी परिस्थितियों से गुजरते रहे हैं.
राज्य में अब टीईटी और सीटीईटी उत्तीर्ण शिक्षा मित्रों को स्थायी नियुक्ति
मिलने की हरी झंडी मिलने के बाद बेसिक शिक्षा निदेशालय ने शिक्षा सचिव को
प्रस्ताव भेज दिया है.
फिर भी नहीं गई बदहाली
इन शिक्षकों के संकट ने प्रारंभिक शिक्षा की बदहाली को भी बेपर्दा कर
दिया है. दरअसल बीते वर्षों में शिक्षकों की भारी कमी को पाटने के लिए ही
इनकी भर्ती की गई थी मगर एक तो ये खुद सियासी दांवपेच और अदालती हथौड़े के
शिकार हो गए, तिस पर शिक्षकों की कमी अब भी बड़ी संख्या में है. देशभर में
जहां प्रारंभिक शिक्षा में करीब नौ लाख शिक्षकों के पद रिक्त पड़े हैं. वहीं
सबसे ज्यादा बिहार और उत्तर प्रदेश में कमी है (देखें ग्राफिक).
पिछले साल नवंबर में संसद में एक सवाल के जवाब में मानव
संसाधन विकास मंत्रालय में केंद्रीय राज्यमंत्री उपेंद्र कुशवाहा ने बताया
कि मध्य प्रदेश के 4,837 प्राथमिक स्कूल ऐसे हैं जहां कोई भी शिक्षक नहीं
है. और ऐसे स्कूलों की संख्या पिछले चार साल में लगातार बढ़ती जा रही है.
इसी तरह कुछ राज्यों में प्रशिक्षित शिक्षकों की भी भारी कमी है. यहां तक
कि देशभर में डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन और ट्रेनिंग (डीआईइटी)
जैसे शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में भी करीब 45 प्रतिशत पद रिक्त हैं. इसी
तरह बीते वर्षों में स्कूलों की बुनियादी सुविधाओं में सुधार तो हुआ है
लेकिन कुछ राज्यों में स्थिति अब भी अच्छी नहीं है (देखें ग्राफिक).
शिक्षा
विभाग के एक अनुमान के मुताबिक यूपी में करीब दस हजार के करीब प्राइमरी
स्कूलों के पास या तो अपना अपना भवन नहीं है या फिर वे जर्जर हैं. इतना ही
नहीं 46 हजार स्कूल ऐसे भी हैं जिनके पास बिजली का कनेक्शन भी नहीं है.
राज्य के प्राइमरी स्कूलों में पिछले छह साल के दौरान छात्रों की संक्चया
घटती गई. बेसिक शिक्षा विभाग में एक संयुक्त निदेशक बताते हैं, ''बच्चों की
संख्या बढ़ाने के लिए सरकार मुक्रत पुस्तकें, यूनिफॉर्म, स्कूल बैग,
जूते-मोजे तो बांट रही है लेकिन स्कूल की मूलभूत सुविधाओं पर कोई ध्यान
नहीं है. अब अभिभावक अपने बच्चों को जमीन पर बिठाकर नहीं पढ़ाना चाहते."
लेकिन बेसिक शिक्षा राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) अनुपमा जायसवाल बताती
हैं, ''इस वर्ष बेसिक स्कूलों में पढऩे आने वाले छात्रों की संख्या में कम
से कम 25 हजार का इजाफा हुआ है."
आगे की राह क्या
शिक्षक और प्राथमिक शिक्षा के संकट के समाधान पर अलग-अलग राय है. अखिल
भारत शिक्षा अधिकार मंच के अध्यक्ष मंडल के सदस्य और प्रख्यात शिक्षाविद्
डॉ. अनिल सदगोपाल कहते हैं, ''शिक्षा का संकट तब तक रहेगा जब तक गैर-बराबरी
की सेवा शर्तों पर नियुक्त करने वाली नीतियां खत्म नहीं की जाएंगी."
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर भी मानते हैं कि
डिप्लॉयमेंट की दिक्कतें रही हैं और सरकार ने इसको लेकर राज्यों को निर्देश
भी दिए हैं ताकि ऐसी स्थितियां खत्म हो. जाहिर है, ठेके और गैर-बराबरी पर
आधारित नियुक्तियों को बंद करते हुए सही नीतियां नहीं बनाई गई और उन्हें
सही तरीके से लागू नहीं किया गया, तो यह संकट भी खत्म नहीं होगा. और यह महज
शिक्षा मित्रों या नियोजित शिक्षकों का मामला भर नहीं है बल्कि प्रारंभिक
शिक्षा ऐसी नींव है, जहां बच्चों को गढ़कर देश के भविष्य तैयार किए जाते
हैं.
—साथ में आशीष मिश्र, अशोक कुमार प्रियदर्शी, अखिलेश पांडे और विजय महर्षि
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