नई दिल्ली : उत्तर प्रदेश में सरकारी नौकरियों को प्रमोशन में
आरक्षण समाप्त करने के विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि कर्मचारियों
को प्रोन्नति में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यह संविधान के प्रावधानों के
खिलाफ है और प्रोन्नत कर्मचारियों को अपने मूल पदों पर लौटना ही होगा।
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एचएल दत्तू की पीठ ने यह टिप्पणियां
करते हुए एक रिट याचिका सोमवार को खारिज कर दी। पीठ ने कहा कि जब कोर्ट ने
प्रमोशन में आरक्षण देने के नियम, 1994 की धारा 3 (7) तथा 2007 के नियम के
नियम 8 ए को रद्द कर दिया है तो कर्मचारियों को अपने मूल पद पर लौटना ही
होगा। उन्हें प्रोन्नत पदों पर नहीं बने रहने दिया जा सकता।
कोर्ट ने याचिकाकर्ता चंद्रशेखर सिंह के अधिवक्ता विप्लव
शर्मा का यह तर्क खारिज कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 16 (4)(ए) में
राज्य सरकारों को आरक्षण में प्रमोशन देने का अधिकार है। उपअनुच्छेद ए 1995
में संविधान में जोड़ा गया था और इसकी वजह सिर्फ प्रामेशन देना ही थी।
लेकिन कोर्ट ने कहा कि हम इसमें नहीं जाना चाहते। यदि सुप्रीम कोर्ट ने
अप्रैल 2012 में प्रमोशन देने की उक्त धाराओं को असंवैधानिक पाया है तो
उसमें अब कुछ नहीं किया जा सकता। कर्मचारियों को मूल पद पर वापस आना होगा
जिससे योग्य व्यक्ति को प्रमोशन दिया जा सके।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार ने
प्रोन्नत किए गए आरक्षित वर्ग के कर्मचारियों को पदावनत कर दिया है। एक ऐसा
ही मसला सर्वोच्च अदालत की दूसरी पीठ के समक्ष लंबित है। इस रिट याचिका
में पदावनत किए गए इंजीनियरों का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार का आदेश
गलत है क्योंकि वे विवादित 1994 कानून की धारा 3 (7) तथा 2007 के नियम -8 ए
के तहत पदोन्नत नहीं किए गए थे। उन्हें यह प्रमोशन 15 साल की सेवा के बाद
यूपी सिविल इंजीनियर, 2004 के नियमों के तहत मिला है।
गौरतलब है कि आरक्षित वर्ग के कर्मियों को प्रमोशन और
वरिष्ठता देने के इन नियमों को सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2012 को रद्द कर
दिया था। लेकिन सरकार ने इस फैसले को लागू करने के क्रम में आरक्षित वर्ग
की सभी किस्म पदोन्नतियों को निरस्त कर दिया।
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