शिक्षा व्यवस्था में बदलाव की जरूरत

वर्ष 2003 में तत्कालीन राजग सरकार ने देश में अवस्थित तकनीकी संस्थाओं के विकास के लिए टेकीप यानी तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
इस कार्यक्रम के तहत विभिन्न चरणों में देश के चिह्नित सरकारी तथा गैरसरकारी शिक्षण संस्थानों में तकनीकी शिक्षा से संबंधित शोध और नवाचार को बढ़ावा देने का प्रावधान है। टेकीप का पहला चरण वर्ष 2009 तक चलाया गया, जिसके तहत 13 राज्यों के कुल 127 शिक्षण संस्थानों को लाभ पहुंचाया गया। दूसरे चरण के तहत वर्ष 2010 तक यह कारवां 13 राज्यों से बढ़कर 23 राज्यों तक पहुंच गया और लाभान्वित होने वाले शिक्षण संस्थानों की संख्या 191 तक पहुंच गई। अब राजग सरकार इस कार्यक्रम के तीसरे चरण के तहत कुल 2260 करोड़ की राशि से बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, सिक्किम व मणिपुर जैसे कई राज्यों के करीब 100 सरकारी तथा गैरसरकारी शिक्षण संस्थानों को तकनीकी सहायता प्रदान करने का निर्णय लिया है। उक्त प्रस्ताव की घोषणा करते हुए गत दिनों मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने स्पष्ट किया कि सरकार ने उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की दिशा में शोध व नवाचार को बढ़ाने तथा पिछड़े राज्यों में तकनीकी विकास के लिए अगले तीन वर्षों में कुल 22660 करोड़ रुपए खर्च करने का फैसला किया है। इस कार्यक्रम के सफल क्रियान्वन के लिए विश्व बैंक और हेफा यानी उच्च शिक्षा वित्त एजेंसी की मदद ली जाएगी। उच्च तथा कौशलयुक्त शिक्षा में सुधार के प्रति वर्तमान सरकार की प्रतिबद्धता नजर आती है। इससे पूर्व भी वर्ष 2015 में युवाओं में कौशल का विकास करने के लिए सरकार ने प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की शुरुआत की थी। इस योजना का मुख्य उद्देश्य देश में सभी युवा वर्ग को संगठित कर उनके कौशल को निखारते हुए उनकी योग्यतानुसार बेहतर रोजगार सुविधा से जोड़ना है। अनियंत्रित रूप से बढ़ती जनसंख्या और देश में महामारी का रूप लेती बेरोजगारी की समस्या के परिप्रेक्ष्य में युवाओं में कौशल व दक्षता का विकास होना समय की मांग है। अत: मोदी सरकार ने अगले चार वषोंर् 2016-20 के दौरान एक करोड़ से अधिक लोगों को कौशल प्रशिक्षण देने के लिए कौशल विकास योजना के तहत 12 हजार करोड़ रुपए के परिव्यय का फैसला किया है।


शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए वर्तमान सरकार नई शिक्षा नीति लाने पर गंभीरता से विचार तो कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ 1986 की शिक्षा नीति की जड़ हो चुकी पुरानी कमियों को दूर करने के प्रयास तक नहीं किए जा रहे हैं।सरकारें बदलती हैं, कानून बदलते हैं, लेकिन नहीं बदलती है तो सिर्फ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की तकदीर!हां, जब हम साक्षरता दर के बढ़ते स्तर की बात करते हैं, तब संकेत सकारात्मक जरूर दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में साक्षरता की जो दर केवल 15 फीसदी थी, वह आज पांच गुनी होकर 75 फीसदी पर आ पहुंची है। इस दौरान केरल, त्रिपुरा और मिजोरम जैसे कुछ राज्यों ने शिक्षा के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है तो दूसरी तरफ इससे उलट मानव विकास सूचकांक में अंतिम पायदान पर शामिल कुछ प्रदेश मसलन बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में साक्षरता दर हमेशा से सूची में पायदान में ही शामिल रही है। आलम यह है कि इन राज्यों में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा कराहती नजर आ रही है।मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2014 में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में 6 से 13 वर्ष की आयु के लगभग 60.64 लाख बच्चे स्कूल से वंचित हैं।
रिपोर्ट में आगे बताया गया कि विद्यालय-विरत छात्रों में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश 1612285, जबकि बिहार 1169722 और पश्चिम बंगाल 339239 क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के डेढ़ दशक और शिक्षा के अधिकार कानून के लागू हुए आधा दशक बीतने के बावजूद बच्चों के स्कूल से जुड़ने की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। ऐसे में सरकार की यह रिपोर्ट न सिर्फ विभागीय सुस्ती की पोल खोल रही है, बल्कि अभिभावकों का अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति बेरुखी और उनके गैर-जिम्मेदारपूर्ण रवैए को भी प्रदर्शित कर रहा है। आजादी के 69 वर्ष बीतने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी देखी जा सकती है।


ग्रामीण आबादी का अधिकांश हिस्सा आज भी शिक्षा के महत्व से अंजान है। प्राथमिक विद्यालय की निकटतम उपलब्धता के बावजूद कक्षा में बच्चों की उपस्थिति कम नजर आती है। स्कूल के समय बच्चे या तो खेलते नजर आ जाते हैं या घर के कामों में बड़ों का हाथ बंटाते हैं। ऐसे में अगर 60 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से दूर हैं तो दोष केवल सरकार का नहीं, बल्कि हमारा भी है। प्राथमिक शिक्षा किसी देश की शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होती है। अगर प्राथमिक शिक्षा की नींव ही डावांडोल हो तो अच्छे भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। विदित हो कि शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल है। केंद्र और राज्य सरकारें दोनों मिलकर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं, लेकिन नतीजे संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। लीकेज हर स्तर पर है। किसी एक पर दोषारोपण करना जायज नहीं।
वर्ष 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून पारित होने के बाद आशा थी कि अगले पांच वर्षों में स्थिति बदल जाएगी। किंतु आज भी देश में नौ लाख शिक्षकों की कमी है। कई राज्यों में विभिन्न कारणों से शिक्षकों की नियुक्तियां अटकी हुई हैं। टीईटी यानी शिक्षक पात्रता परीक्षा पास अभ्यर्थी भी खुद को भाग्यशाली नहीं समझ रहे हैं। शिक्षकों की नियुक्ति न होने से लाखों छात्रों का भविष्य अधर में लटक गया है। यही कारण है, प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षक और छात्र का अनुपात 40:1 न होकर, उससे अधिक रह रहा है। दूसरी तरफ, विद्यालय परित्यक्त छात्रों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है। हालांकि, इसके पीछे भी कई कारण जिम्मेदार हैं। पहला तो स्कूलों में आधारभूत संरचना की कमी, खासकर शौचालय न होने या उसके बुरी स्थिति में होने से बच्चियां स्कूल जाने से कतराती हैं। प्राथमिक स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा न दिए जाने के कारण आज निम्न आय वर्गीय परिवार के अभिभावक भी अपने बच्चों को किसी अंग्रेजी या कान्वेंट स्कूलों में भेजना ही श्रेयस्कर समझते हैं। दूसरी तरफ, समाज के उपेक्षित वर्ग के बच्चों की नामांकन संख्या में बढ़ोतरी न होना भी नीति-निर्माताओं के सिरदर्द का कारण बन गया है। आलम यह है कि मध्याह्न भोजन योजना, छात्रवृति तथा मुफ्त पाठ्य पुस्तकों के वितरण की व्यवस्था भी बच्चों को स्कूल में रोके रखने में सफल नहीं हो पा रही हैं।
गत मंगलवार को एसोचैम की शिक्षा पर आई ताजा रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत के संबंध में यह साफ तौर कहा गया है कि भारत यदि अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं करता है तो विकसित देशों की बराबरी करने में उसे छह पीढि़यां यानी 126 साल लग जाएंगे। गौरतलब है कि भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का महज 3.83 फीसदी हिस्सा ही खर्च करता है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में यह हिस्सेदारी क्रमश: 5.22, 5.72 और 4.95 फीसदी है।
 इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र संघ का मानक यह है कि हर देश शिक्षा व्यवस्था पर अपनी जीडीपी का कम से कम 6 फीसदी खर्च करे। देश में शिक्षा सुधारों के लिए डीएस कोठारी की अध्यक्षता में 1964 में गठित कोठारी समिति ने भी अपनी रिपोर्ट में कुल राष्ट्रीय आय के 6 फीसदी को शिक्षा पर व्यय करने का सुझाव दिया था। जबकि, वास्तविकता यह है कि इस क्षेत्र में महज तीन से चार फीसदी ही राशि आवंटित हो पाती हैं। पिछले बजट की बात करें तो शिक्षा पर कुल साढ़े चार करोड़ रुपए की कमी दर्ज की गई।कॉलेज और विश्वविद्यालय उच्च शिक्षा प्राप्ति की दृष्टि से विद्यार्थियों के जीवन का अहम पड़ाव होता है। देश की प्रगति के लिए यह एक रोडमैप तैयार करता है। एक सच्चाई यह भी है कि उच्च शिक्षा प्राप्त लाखों लोग बेरोजगार हो रहे हैं। उनके पास डिग्री तो है, किंतु हुनर और कौशल की कमी है। सूबाई कॉलेजों सहित देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में शिक्षा की मौजूदा स्थिति किसी से छिपी नहीं है। अपवाद छोड़ दें तो अधिकांश विश्वविद्यालयों में समय पर कोर्स की पढ़ाई पूरी नहीं पाती है।वास्तव में भारतीय शिक्षा की मौजूदा प्रणाली में नाकामियों की फफूंद लगी है। संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण के शब्दों में आज की शिक्षाप्रणाली से अधिकांश बच्चे अनपढ़ और अज्ञानी होते जा रहे हैं। इसलिए प्राथमिक से लेकर विश्वविद्यालय तक की शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए। जयप्रकाश नारायण देश में ऐसी शिक्षा व्यवस्था के हिमायती थे, जहां शिक्षा का डिग्री से कोई संबंध न हो तथा डिग्री लेकर कोई नौकरी के लिए न भटके, इसलिए रोजगारपरक शिक्षा बहाल होनी चाहिए। जेपी का यह क्रांतिकारी विचार भारतीय शिक्षा की तस्वीर बदल सकता है। ध्यान दें, शिक्षा का उद्देश्य केवल राष्ट्र के नागरिकों को साक्षर बना देना ही नहीं है, लोगों में काबिलियत का विकास कर उसे अपनी योग्यतानुसार रोजगार की चौखट तक पहुंचाना ही सरकार व समाज का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए।
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