वर्ष 2003 में तत्कालीन राजग सरकार ने देश में अवस्थित तकनीकी संस्थाओं के विकास के लिए टेकीप यानी तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम की शुरुआत की थी।
शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए वर्तमान सरकार नई शिक्षा नीति लाने पर गंभीरता से विचार तो कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ 1986 की शिक्षा नीति की जड़ हो चुकी पुरानी कमियों को दूर करने के प्रयास तक नहीं किए जा रहे हैं।सरकारें बदलती हैं, कानून बदलते हैं, लेकिन नहीं बदलती है तो सिर्फ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की तकदीर!हां, जब हम साक्षरता दर के बढ़ते स्तर की बात करते हैं, तब संकेत सकारात्मक जरूर दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में साक्षरता की जो दर केवल 15 फीसदी थी, वह आज पांच गुनी होकर 75 फीसदी पर आ पहुंची है। इस दौरान केरल, त्रिपुरा और मिजोरम जैसे कुछ राज्यों ने शिक्षा के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है तो दूसरी तरफ इससे उलट मानव विकास सूचकांक में अंतिम पायदान पर शामिल कुछ प्रदेश मसलन बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में साक्षरता दर हमेशा से सूची में पायदान में ही शामिल रही है। आलम यह है कि इन राज्यों में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा कराहती नजर आ रही है।मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2014 में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में 6 से 13 वर्ष की आयु के लगभग 60.64 लाख बच्चे स्कूल से वंचित हैं।
रिपोर्ट में आगे बताया गया कि विद्यालय-विरत छात्रों में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश 1612285, जबकि बिहार 1169722 और पश्चिम बंगाल 339239 क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के डेढ़ दशक और शिक्षा के अधिकार कानून के लागू हुए आधा दशक बीतने के बावजूद बच्चों के स्कूल से जुड़ने की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। ऐसे में सरकार की यह रिपोर्ट न सिर्फ विभागीय सुस्ती की पोल खोल रही है, बल्कि अभिभावकों का अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति बेरुखी और उनके गैर-जिम्मेदारपूर्ण रवैए को भी प्रदर्शित कर रहा है। आजादी के 69 वर्ष बीतने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी देखी जा सकती है।
ग्रामीण आबादी का अधिकांश हिस्सा आज भी शिक्षा के महत्व से अंजान है। प्राथमिक विद्यालय की निकटतम उपलब्धता के बावजूद कक्षा में बच्चों की उपस्थिति कम नजर आती है। स्कूल के समय बच्चे या तो खेलते नजर आ जाते हैं या घर के कामों में बड़ों का हाथ बंटाते हैं। ऐसे में अगर 60 लाख बच्चे स्कूली शिक्षा से दूर हैं तो दोष केवल सरकार का नहीं, बल्कि हमारा भी है। प्राथमिक शिक्षा किसी देश की शिक्षा व्यवस्था की रीढ़ होती है। अगर प्राथमिक शिक्षा की नींव ही डावांडोल हो तो अच्छे भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती। विदित हो कि शिक्षा समवर्ती सूची में शामिल है। केंद्र और राज्य सरकारें दोनों मिलकर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं, लेकिन नतीजे संतोषजनक नहीं कहे जा सकते। लीकेज हर स्तर पर है। किसी एक पर दोषारोपण करना जायज नहीं।
गत मंगलवार को एसोचैम की शिक्षा पर आई ताजा रिपोर्ट पर गौर करें तो भारत के संबंध में यह साफ तौर कहा गया है कि भारत यदि अपनी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में प्रभावशाली बदलाव नहीं करता है तो विकसित देशों की बराबरी करने में उसे छह पीढि़यां यानी 126 साल लग जाएंगे। गौरतलब है कि भारत अपनी शिक्षा व्यवस्था पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का महज 3.83 फीसदी हिस्सा ही खर्च करता है, जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी में यह हिस्सेदारी क्रमश: 5.22, 5.72 और 4.95 फीसदी है।
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शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए वर्तमान सरकार नई शिक्षा नीति लाने पर गंभीरता से विचार तो कर रही है, लेकिन दूसरी तरफ 1986 की शिक्षा नीति की जड़ हो चुकी पुरानी कमियों को दूर करने के प्रयास तक नहीं किए जा रहे हैं।सरकारें बदलती हैं, कानून बदलते हैं, लेकिन नहीं बदलती है तो सिर्फ भारतीय शिक्षा व्यवस्था की तकदीर!हां, जब हम साक्षरता दर के बढ़ते स्तर की बात करते हैं, तब संकेत सकारात्मक जरूर दिखाई देते हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत में साक्षरता की जो दर केवल 15 फीसदी थी, वह आज पांच गुनी होकर 75 फीसदी पर आ पहुंची है। इस दौरान केरल, त्रिपुरा और मिजोरम जैसे कुछ राज्यों ने शिक्षा के क्षेत्र में आश्चर्यजनक प्रगति की है तो दूसरी तरफ इससे उलट मानव विकास सूचकांक में अंतिम पायदान पर शामिल कुछ प्रदेश मसलन बिहार, ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में साक्षरता दर हमेशा से सूची में पायदान में ही शामिल रही है। आलम यह है कि इन राज्यों में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा कराहती नजर आ रही है।मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा 2014 में कराए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, देश में 6 से 13 वर्ष की आयु के लगभग 60.64 लाख बच्चे स्कूल से वंचित हैं।
रिपोर्ट में आगे बताया गया कि विद्यालय-विरत छात्रों में सर्वाधिक उत्तर प्रदेश 1612285, जबकि बिहार 1169722 और पश्चिम बंगाल 339239 क्रमश: दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं। सर्व शिक्षा अभियान के डेढ़ दशक और शिक्षा के अधिकार कानून के लागू हुए आधा दशक बीतने के बावजूद बच्चों के स्कूल से जुड़ने की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि नहीं हुई है। ऐसे में सरकार की यह रिपोर्ट न सिर्फ विभागीय सुस्ती की पोल खोल रही है, बल्कि अभिभावकों का अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति बेरुखी और उनके गैर-जिम्मेदारपूर्ण रवैए को भी प्रदर्शित कर रहा है। आजादी के 69 वर्ष बीतने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति जागरूकता की कमी देखी जा सकती है।
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