शिक्षा का चरमराता ढांचा: देश की शिक्षा व्यवस्था आज ऐसे मोड़ पर आ पहुंची है जहां उसे तमाम समस्याओं का समाधान होगा तलाशना

नई शिक्षा नीति का प्रारूप आने की सभी प्रतीक्षा कर रहे हैं। सभी की अपनी-अपनी आशाएं और अपेक्षाएं हैं। दक्षिण अफ्रीका से आकर जब मोहनदास करमचंद गांधी ने भारत में जनसेवा और देश सेवा के लिए कार्य करने की इच्छा व्यक्त की तो गोपाल कृष्ण गोखले नें उन्हें पहले भारत भ्रमण कर देश को समझने की सलाह दी और गांधी ने उसका अक्षरश: पालन भी किया।
वह संभवत: इस भ्रमण का ही परिणाम था कि वह भारत को जितना समझ पाए उतना उनके साथ कार्य करने वाले अन्य नेता आत्मसात नहीं कर सके। गांधी और नेहरू के बीच में यह अंतर सदा बना रहा। दोनों की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में जो अंतर था वही इसके लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। गांधी की अनेक संकल्पनाओं और विचारों को लेकर स्वतंत्र भारत में सरकारों द्वारा कोई दिलचस्पी न लिए जाने के कारणों का विश्लेषण अनेक विद्वानों ने किया है, मगर सामान्य जन की चर्चा में यही परिदृश्य उभर कर आता है कि यदि गांधी व्यावहारिक दूरदृष्टि के धनी थे तो पंडित नेहरू पश्चिम के वैज्ञानिक विकास और वहां की भाषा-संस्कृति के प्रति अधिक आकर्षण रखते थे, क्योंकि वह उसी से अधिक परिचित थे। स्वतंत्रता पूर्व भारत में गांधी जी का मुख्य ध्यान गांव, अशिक्षा, गरीबी, सामाजिक कुरीतियां, सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं की ओर लगा रहता था। शिक्षा को वह देशवासियों की ख़ुशी के लिए ‘आशा की एकमात्र किरण’ मानते थे। यह सब उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में विभिन्न मातृभाषाएं बोलने वाले बच्चों को अपने आश्रम में पढ़ाकर स्वयं अनुभव से ही सीखा था। 1यदि कुछ विशिष्ट संस्थानों को अपवाद मान लें तो आज देश में शिक्षा की स्थिति पर हर तरफ चिंता व्यक्त की जा रही है। बेरोजगारी एक भयावह समस्या के रूप में आकर खड़ी हो गई है। गांव उजड़ रहे हैं, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए लोग आकाश-पाताल एक कर रहे हैं। वे शिक्षित लोग जो ऊंचे पदों पर पहुंचकर केवल स्वार्थ के वशीभूत होकर भ्रष्टाचार में आकंठ डूब जाते हैं उनकी संख्या चिंताजनक परिमाण में बढ़ती ही जा रही है। नैतिकता का ह्रास जीवन के हर कार्यकारी क्षेत्र में पंख पसार चुका है। स्कूलों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में यौन शोषण के प्रकरण भी देखने को मिल रहे हैं। कुछ समय पहले एक विश्वविद्यालय के कुलपति को फर्जी उपाधि प्रस्तुत कर पद पाने का दोषी पाया गया। एक अन्य को अपने विश्वविद्यालय में अध्यापक पद पर नियुक्तियों में धनराशि लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा गया। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद यह पाया गया कि महाराष्ट्र सरकार के 11,700 कर्मचारियों ने आरक्षण के तहत जाति का फर्जी प्रमाणपत्र देकर नौकरी हासिल की थी। इस सबमें ऊंची शिक्षा प्राप्त वरिष्ठ अधिकारियों की मिलीभगत से क्या कोई इन्कार कर सकेगा? भारत में डॉक्टरी की पढ़ाई को लेकर कई दशकों से ऊंचे स्तर पर फैले भ्रष्टाचार से हर कोई परिचित है। मेडिकल के निजी महाविद्यालयों में अनेक प्रकार के घोटाले सामने आते हैं। प्रतिभाहीन विद्यार्थियों को उनके धनाढ्य माता-पिता सीट ‘खरीद’ कर दे सकते हैं। कुछ वषों से यह स्थापित हो चुका है कि गरीब घर के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को नकदी देकर सीट कोई और ले लेता है। शिक्षा व्यवस्था को अपने भीतर झांककर यह देखना ही होगा कि उसके दरवाजे से निकलकर समाज में गए लोग असामाजिक तत्व क्यों बन जाते हैं और इतनी पहुंच कैसे बना लेते हैं?1पिछले सौ वषों में विश्व में अद्भुत परिवर्तन हुए हैं। शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। न रह सकता है, क्योंकि अधिकांश नवाचार, आविष्कार और खोज ज्ञान-प्राप्ति के केंद्रों पर ही होता रहा है। ज्ञान के प्रति मानव की जिज्ञासा की प्रवृत्ति ही मानव सभ्यता के विकास की धुरी रही है। इस क्षेत्र में भारत की ज्ञानार्जन की अपनी विशेष परंपरा और पद्धति रही है। उसके मूल उद्देश्य आज भी अपनी निरंतरता लिए हुए दिशा दिखा रहे हैं। मानव की संकल्पना की उड़ान और विचारों की शक्ति जब उसकी जिज्ञासा एवं सृजनात्मकता से मिल जाती है तब समाज आगे बढ़ने के नए आयाम खोज लेता है और नए विचार, व्यवहार, पद्धतियां और उपकरण सृजित कर लेता है। वह जहां तक पहुंचता है वहां कभी रुकता नहीं है और आगे जाने के लिए ‘जो है’ उसमें वृद्धि और सुधार के लिए सदा ही प्रस्तुत रहता है। 1मनुष्य हर समस्या का समाधान सदा ढूंढ़ ही लेता है। भारत की शिक्षा व्यवस्था आज ऐसे मोड़ पर आ पहुंची है जहां उसे तमाम समस्याओं का समाधान तलाशना है। 9 जनवरी, 1920 को गांधी जी से पूछा गया था कि शिक्षा पद्धति के दोष बताएं तो उनका उत्तर था, ‘पहला दोष तो यह है कि हमारे विद्यालयों में नैतिक अथवा धार्मिक शिक्षा का अभाव है। दूसरा दोष यह है कि शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण शिक्षा प्राप्त करने वाले बालकों के बौद्धिक स्नोतों पर इतना अधिक दबाव पड़ता है कि उन्हें जो उच्च विचार विद्यालयों द्वारा प्राप्त होते हैं उनको वे पचा नहीं पाते। अच्छे से अच्छे विद्यार्थी को भी तोते की भांति रटना पड़ता है।’ उनसे आगे पूछा गया, क्या आपके विचार से शिक्षण का माध्यम देसी भाषा होनी चाहिए और धर्म शिक्षा को स्थान मिलना चाहिए? उनका उत्तर था, ‘मेरे विचार से इन दोनों दोषों को तो अवश्य दूर करना चाहिए और फिर वैयक्तिक तत्व के अभाव को। अध्यापक में वैयक्तिक तत्व का भी अभाव है। वर्तमान समय में प्रचलित परंपराओं की अपेक्षा उच्चतर परंपराओं से संपन्न अध्यापक वर्ग की अधिक आवश्यकता है। शिक्षा के क्षेत्र में ये तीन बातें ही परिवर्तन कर सकती हैं।’1आज इतने वर्ष के बाद भी जब साक्षरता दर 75 प्रतिशत के ऊपर पहुंच चुकी है, शिक्षा के दोष भी उसी अनुपात में बढ़े हैं जो अपेक्षाओं के विपरीत है। माना जा सकता है कि शिक्षा नीति के परिवर्तन के समय मुख्य रूप से भौतिक संसाधनों की कमी, अध्यापकों की कम संख्या, लचर व्यवस्था, शैक्षिक नेतृत्व का अभाव इत्यादि को लेकर चर्चा होती है। अध्यापक और विद्यार्थी के बीच के संबंधों पर गहन विचार-विमर्श कम ही हो पाता है। कार्यकारी जीवन में प्रवेश कर शिक्षा प्राप्त-युवा जब कार्यभार संभालता है तो उसकी सबसे बड़ी पूंजी-वैयक्तिक तत्व ही उसके योगदान की गुणवत्ता और उसमें नैतिकता के समाहित होने की संभावना को निर्धारित करता है। केवल कर्मठ और सक्षम अध्यापक जो सदाचरण में सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से परिचित और प्रेरित हों, मातृभाषा माध्यम से चरित्रवान नागरिक तैयार कर सकता है। उसी दिशा में अग्रसर होकर सार्थक शैक्षिक परिवर्तन संभव है। गांधी के विचारों में शिक्षा नीति के प्रेरक तत्व स्पष्ट दिखाई देते हैं।1(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

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