आज प्राथमिक शिक्षा की बदहाली पर हम सभी चिंतित हैं, और इसके लिए एकमात्र दोषी शिक्षकों को ही मानते हैं। उन्हें निकम्मा, कामचोर, आदि उपाधियों से विभूषित करते रहते हैं, जैसे दुनिया में उनके जैसा कर्त्तव्य विमुख व्यक्ति कोई है ही नहीं।उनके वेतन से हम ईर्ष्या करते हैं।
हम शिक्षाअधिकारी उनके समस्याओं के निराकरण के प्रति जितना ही अनमयस्क रहते हैं, उतनी ही उनके विरूद्ध कार्यवाही के लिए तत्पर।
लेकिन मुझे नहीं लगता कि प्राथमिक शिक्षा के बदहाली का एकमात्र कारण शिक्षक हैं। हम सरकारी स्कूलों की तुलना साधन सम्पन्न निजी स्कूलों से करते हैं, जिनमें बच्चों को ले जाने और लाने का कार्य अभिभावक या तो स्वयं करते हैं या किसी साधन की व्यवस्था करते हैं। जबकि हमारे प्राथमिक शिक्षक स्वयं ही बच्चों को उनके घरों से स्कूल तक लाते हैं, उन घरों से जिनके अभिभावक कहते हैं कि यह पढ-लिखकर क्या करेगा? पब्लिक स्कूलों के बच्चों का होमवर्क या तो अभिभावक स्वयं कराते हैं, या ट्यूशन लगाते हैं, जबकि सरकारी स्कूल के बच्चों के अभिभावक इस स्थिति में भी नहीं हैं कि उनके क्लास-वर्क को ही देख-समझ सकें। ये वे बच्चे होते हैं जो घरेलू काम करके स्कूल आते हैं और पुनः घर जाकर घरेलू कामों में लग जाते हैं। शैक्षिक गुणवत्ता में फ़र्क तो पड़ेगा साहब ! क्योंकि इनकी पढाई स्कूल तक ही सीमित रहती है और खेती के मौसम में इन्हें स्कूल तक लाना भी आकाश से तारे तोड़ने के समान है ।
सरकारी स्कूलों के शिक्षक , शैक्षिक कार्यों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से कार्यों में लगाए जाते हैं, जिसके कारण इन्हें स्कूल टाइम मे ही बाहर जाना पड़ता है। फिर गांव वाले, प्रधान जी, या अन्य विभागों के अधिकारी इन्हें अनुपस्थित घोषित कर देते हैं, फिर वे सफाई देते रहें, कार्यालय का चक्कर लगाते रहें। निराकरण कैसे होता है किसी शिक्षक से ही पूछिए ।
हम नित नए-नए प्रयोग गुणवत्ता संवर्धन के लिए लाते हैं और शिक्षकों से कह देते हैं इसे करो। इसके लिए जनपद स्तर पर न कोई गोष्ठी, न वर्कशाप। हम शिक्षा अधिकारी के रूप में उन्हें कितना नेतृत्व दे पाते हैं, यह तो हमारी आत्मा ही जानती है। शैक्षिक विज़न पर बात करते ही हम कह देते हैं कि हम एकेडमिक नहीं है। मेरा तो मानना है कि नेतृत्व अगर दिशा देने में सक्षम नहीं है तो दशा के लिए उत्तरदायी भी वही है। वैसे दशा उतनी बुरी नहीं है, जितनी दिखाई जा रही है। आज भी लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं मे सरकारी स्कूलों में पढे छात्र सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक सफल हो रहे हैं। नई प्रणाली लागू होने से पहले दसेक साल तक संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भी ये अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने लगे थे ।
हमारा शिक्षक दया नहीं चाहता, लेकिन उसके प्रति भी एक संवेदनशील सोच हो ऐसा तो वह जरूर चाहेगा। उसे सम्मान मत दिजिए लेकिन अपमानित भी मत किजिए। उसके गैर शैक्षणिक कार्यों का बोझ कम किजिए और निंदा की जगह सहयोग करके देखिए, उनकी ओर से मैं विश्वास दिलाता हूँ कि हमारे यही शिक्षक प्राथमिक शिक्षा की दशा और दिशा दोनों बदल देंगे।
मेरे मन में इन शिक्षकों के प्रति सम्मान है,क्योंकि मेरे व्यक्तित्व को मेरे परिवार, गांव और समाज के साथ मेरे शिक्षकों ने भी गढ़ा है, जी हाँ इन्हीं सरकारी स्कूलों के शिक्षकों ने ।
साभार-- बड़े भाई अमरनाथ राय जी(वरिष्ठ शिक्षाधिकारी व डायट प्राचार्य)के फेसबुक वाल से |
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हम शिक्षाअधिकारी उनके समस्याओं के निराकरण के प्रति जितना ही अनमयस्क रहते हैं, उतनी ही उनके विरूद्ध कार्यवाही के लिए तत्पर।
लेकिन मुझे नहीं लगता कि प्राथमिक शिक्षा के बदहाली का एकमात्र कारण शिक्षक हैं। हम सरकारी स्कूलों की तुलना साधन सम्पन्न निजी स्कूलों से करते हैं, जिनमें बच्चों को ले जाने और लाने का कार्य अभिभावक या तो स्वयं करते हैं या किसी साधन की व्यवस्था करते हैं। जबकि हमारे प्राथमिक शिक्षक स्वयं ही बच्चों को उनके घरों से स्कूल तक लाते हैं, उन घरों से जिनके अभिभावक कहते हैं कि यह पढ-लिखकर क्या करेगा? पब्लिक स्कूलों के बच्चों का होमवर्क या तो अभिभावक स्वयं कराते हैं, या ट्यूशन लगाते हैं, जबकि सरकारी स्कूल के बच्चों के अभिभावक इस स्थिति में भी नहीं हैं कि उनके क्लास-वर्क को ही देख-समझ सकें। ये वे बच्चे होते हैं जो घरेलू काम करके स्कूल आते हैं और पुनः घर जाकर घरेलू कामों में लग जाते हैं। शैक्षिक गुणवत्ता में फ़र्क तो पड़ेगा साहब ! क्योंकि इनकी पढाई स्कूल तक ही सीमित रहती है और खेती के मौसम में इन्हें स्कूल तक लाना भी आकाश से तारे तोड़ने के समान है ।
सरकारी स्कूलों के शिक्षक , शैक्षिक कार्यों के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से कार्यों में लगाए जाते हैं, जिसके कारण इन्हें स्कूल टाइम मे ही बाहर जाना पड़ता है। फिर गांव वाले, प्रधान जी, या अन्य विभागों के अधिकारी इन्हें अनुपस्थित घोषित कर देते हैं, फिर वे सफाई देते रहें, कार्यालय का चक्कर लगाते रहें। निराकरण कैसे होता है किसी शिक्षक से ही पूछिए ।
हम नित नए-नए प्रयोग गुणवत्ता संवर्धन के लिए लाते हैं और शिक्षकों से कह देते हैं इसे करो। इसके लिए जनपद स्तर पर न कोई गोष्ठी, न वर्कशाप। हम शिक्षा अधिकारी के रूप में उन्हें कितना नेतृत्व दे पाते हैं, यह तो हमारी आत्मा ही जानती है। शैक्षिक विज़न पर बात करते ही हम कह देते हैं कि हम एकेडमिक नहीं है। मेरा तो मानना है कि नेतृत्व अगर दिशा देने में सक्षम नहीं है तो दशा के लिए उत्तरदायी भी वही है। वैसे दशा उतनी बुरी नहीं है, जितनी दिखाई जा रही है। आज भी लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं मे सरकारी स्कूलों में पढे छात्र सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक सफल हो रहे हैं। नई प्रणाली लागू होने से पहले दसेक साल तक संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भी ये अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने लगे थे ।
हमारा शिक्षक दया नहीं चाहता, लेकिन उसके प्रति भी एक संवेदनशील सोच हो ऐसा तो वह जरूर चाहेगा। उसे सम्मान मत दिजिए लेकिन अपमानित भी मत किजिए। उसके गैर शैक्षणिक कार्यों का बोझ कम किजिए और निंदा की जगह सहयोग करके देखिए, उनकी ओर से मैं विश्वास दिलाता हूँ कि हमारे यही शिक्षक प्राथमिक शिक्षा की दशा और दिशा दोनों बदल देंगे।
मेरे मन में इन शिक्षकों के प्रति सम्मान है,क्योंकि मेरे व्यक्तित्व को मेरे परिवार, गांव और समाज के साथ मेरे शिक्षकों ने भी गढ़ा है, जी हाँ इन्हीं सरकारी स्कूलों के शिक्षकों ने ।
साभार-- बड़े भाई अमरनाथ राय जी(वरिष्ठ शिक्षाधिकारी व डायट प्राचार्य)के फेसबुक वाल से |
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