उत्तर
प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अभी हाल में पोषण योजना के तहत
श्रावस्ती गए थे। कार्यक्रम के बाद वह अचानक एक प्राइमरी स्कूल में पहुंचे,
तो पता चला, पूरी क्लास में एक बच्चे को छोड़कर कोई भी बच्चा हिन्दी की
किताब तक नहीं पढ़ पाया।
मुख्यमंत्री ने वहां खड़े शिक्षकों को फटकार लगाते हुए कहा कि आप लोग बच्चों को ठीक से पढ़ाते नहीं है, जबकि आपको तनख्वाह इन्हें पढ़ाने के लिए मिलती है, लेकिन आप लोगों को पोस्टिंग घर के नजदीक चाहिए।
इस वाकये का ज़िक्र मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि यह उस राज्य के मुख्यमंत्री का किस्सा है, जहां शिक्षा की वार्षिक स्थिति की रिपोर्ट के मुताबिक 45 फीसदी बच्चे पांचवीं कक्षा में पहुंचने के बावजूद पढ़-लिख नहीं पाते हैं। सवाल यह उठता है कि यह मुख्यमंत्री का पब्लिसिटी स्टंट था या उन्हें प्राथमिक शिक्षा की सेहत का अब ध्यान आया है, जब उनकी सरकार का एक साल से भी कम वक्त बचा है।
अभी हाल में मुझे सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की कार्यशाला में जाने का मौका मिला। यहां आई जानी-मानी शिक्षाविद प्रोफेसर गीता गांधी के तथ्य और स्टडी हैरान करने वाले थे। हम अक्सर प्राथमिक शिक्षा में सुधार का सतही हल बजट बढ़ाने, शिक्षकों की भर्ती कर देने और स्कूल की अच्छी इमारत बनाने में खोज लेते हैं, लेकिन गीता गांधी बताती हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले हर बच्चे पर 1,300 रुपये खर्च करती है, लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बावजूद अगर सरकारी स्कूलों के बच्चे हिन्दी भी ठीक से नहीं पढ़ पाते, तो क्या इस पैसे का उपयोग महज शिक्षकों को मोटी तनख्वाह देने और इमारत बनाने पर होता है।
इस बात में बहुत हद तक सच्चाई है... क्योंकि ये शिक्षक न बच्चों के प्रति जवाबदेह हैं, न उनके गरीब माता-पिता के प्रति। उत्तर प्रदेश की सरकारों पर शिक्षक संघों का जबरदस्त राजनीतिक प्रभाव रहा है। विधान परिषद में शिक्षकों के लिए सीटें और चुनाव लड़ने की आजादी के चलते उत्तर प्रदेश के बहुत-से शिक्षक पढ़ाने में कम, राजनीतिक ताकत हथियाने में ज्यादा ऊर्जा खपा रहे हैं। इसी के चलते आएदिन आपने इन्हें अपनी तनख्वाह और भत्ते बढ़ाने के लिए प्रदर्शन करते देखा होगा, लेकिन बीते चार साल में सरकारी स्कूलों में बच्चों का एनरॉलमेंट 1.16 करोड़ और प्राइवेट स्कूलों में 1.85 करोड़ क्यों है, इसके लिए कोई धरना देते नहीं देखा होगा।
राजनैतिक तौर पर ये शिक्षक कितने ताकतवर हैं, इसका अंदाजा प्रोफेसर गीता गांधी के इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार हर महीने करीब 20 करोड़ रुपये उन शिक्षकों की तनख्वाहों पर खर्च करती है, जिनके स्कूल में एक भी बच्चा एनरॉल नहीं है। हम कम बजट वाले निजी स्कूलों पर शिक्षा की दुकानदारी और अनट्रेंड शिक्षकों से पढ़ाने का आरोप लगाकर उन्हें बंद करवाने की बात करते हैं, लेकिन सरकार के ट्रेंड शिक्षकों की पढ़ाई हमसे-आपसे छिपी नहीं है।
...तो क्या गरीब बच्चों को हम बजट बढ़ाने वाले कागजी आंकड़ों के रहमोकरम पर छोड़ दें। सही मायने में अगर उत्तर प्रदेश की प्राइमरी शिक्षा को सुधारना है, तो नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की राजनीतिक दखलअंदाजी को सीमित किया जाए। शिक्षकों को सीधे बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। लो-बजट निजी स्कूलों को दूरदराज के इलाकों में खोलने को प्राथमिकता दी जाए। मान्यता देने और छात्रवृत्ति के नाम पर स्कूलों से मोटी रकम वसूलने वाले माफियाओं पर लगाम लगाई जाए। सरकारी स्कूलों में अभिभावक कमेटियों का गठन किया जाए। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में शिक्षा में मूलभूत बदलाव की सख्त जरुरत है। शिक्षा विभाग का मर्ज गंभीर है, मुख्यमंत्री जी, आपको कड़वी दवा पिलानी ही होगी।
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ख़बरें अब तक - 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती - Today's Headlines
मुख्यमंत्री ने वहां खड़े शिक्षकों को फटकार लगाते हुए कहा कि आप लोग बच्चों को ठीक से पढ़ाते नहीं है, जबकि आपको तनख्वाह इन्हें पढ़ाने के लिए मिलती है, लेकिन आप लोगों को पोस्टिंग घर के नजदीक चाहिए।
इस वाकये का ज़िक्र मैं इसलिए कर रहा हूं, क्योंकि यह उस राज्य के मुख्यमंत्री का किस्सा है, जहां शिक्षा की वार्षिक स्थिति की रिपोर्ट के मुताबिक 45 फीसदी बच्चे पांचवीं कक्षा में पहुंचने के बावजूद पढ़-लिख नहीं पाते हैं। सवाल यह उठता है कि यह मुख्यमंत्री का पब्लिसिटी स्टंट था या उन्हें प्राथमिक शिक्षा की सेहत का अब ध्यान आया है, जब उनकी सरकार का एक साल से भी कम वक्त बचा है।
अभी हाल में मुझे सेंटर फॉर सिविल सोसायटी की कार्यशाला में जाने का मौका मिला। यहां आई जानी-मानी शिक्षाविद प्रोफेसर गीता गांधी के तथ्य और स्टडी हैरान करने वाले थे। हम अक्सर प्राथमिक शिक्षा में सुधार का सतही हल बजट बढ़ाने, शिक्षकों की भर्ती कर देने और स्कूल की अच्छी इमारत बनाने में खोज लेते हैं, लेकिन गीता गांधी बताती हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले हर बच्चे पर 1,300 रुपये खर्च करती है, लेकिन इतना पैसा खर्च करने के बावजूद अगर सरकारी स्कूलों के बच्चे हिन्दी भी ठीक से नहीं पढ़ पाते, तो क्या इस पैसे का उपयोग महज शिक्षकों को मोटी तनख्वाह देने और इमारत बनाने पर होता है।
इस बात में बहुत हद तक सच्चाई है... क्योंकि ये शिक्षक न बच्चों के प्रति जवाबदेह हैं, न उनके गरीब माता-पिता के प्रति। उत्तर प्रदेश की सरकारों पर शिक्षक संघों का जबरदस्त राजनीतिक प्रभाव रहा है। विधान परिषद में शिक्षकों के लिए सीटें और चुनाव लड़ने की आजादी के चलते उत्तर प्रदेश के बहुत-से शिक्षक पढ़ाने में कम, राजनीतिक ताकत हथियाने में ज्यादा ऊर्जा खपा रहे हैं। इसी के चलते आएदिन आपने इन्हें अपनी तनख्वाह और भत्ते बढ़ाने के लिए प्रदर्शन करते देखा होगा, लेकिन बीते चार साल में सरकारी स्कूलों में बच्चों का एनरॉलमेंट 1.16 करोड़ और प्राइवेट स्कूलों में 1.85 करोड़ क्यों है, इसके लिए कोई धरना देते नहीं देखा होगा।
राजनैतिक तौर पर ये शिक्षक कितने ताकतवर हैं, इसका अंदाजा प्रोफेसर गीता गांधी के इन आंकड़ों से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश सरकार हर महीने करीब 20 करोड़ रुपये उन शिक्षकों की तनख्वाहों पर खर्च करती है, जिनके स्कूल में एक भी बच्चा एनरॉल नहीं है। हम कम बजट वाले निजी स्कूलों पर शिक्षा की दुकानदारी और अनट्रेंड शिक्षकों से पढ़ाने का आरोप लगाकर उन्हें बंद करवाने की बात करते हैं, लेकिन सरकार के ट्रेंड शिक्षकों की पढ़ाई हमसे-आपसे छिपी नहीं है।
...तो क्या गरीब बच्चों को हम बजट बढ़ाने वाले कागजी आंकड़ों के रहमोकरम पर छोड़ दें। सही मायने में अगर उत्तर प्रदेश की प्राइमरी शिक्षा को सुधारना है, तो नई शिक्षा नीति में शिक्षकों की राजनीतिक दखलअंदाजी को सीमित किया जाए। शिक्षकों को सीधे बच्चों और उनके अभिभावकों के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। लो-बजट निजी स्कूलों को दूरदराज के इलाकों में खोलने को प्राथमिकता दी जाए। मान्यता देने और छात्रवृत्ति के नाम पर स्कूलों से मोटी रकम वसूलने वाले माफियाओं पर लगाम लगाई जाए। सरकारी स्कूलों में अभिभावक कमेटियों का गठन किया जाए। उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में शिक्षा में मूलभूत बदलाव की सख्त जरुरत है। शिक्षा विभाग का मर्ज गंभीर है, मुख्यमंत्री जी, आपको कड़वी दवा पिलानी ही होगी।
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